हम सोचते रहे ढ़ो रहे हैं दुनियां का बोझ,
सच ये है की हम बोझ बन गए दुनिया पर -
उठाओ शमशीर ख़त्म कर दो जुल्म की इन्तहां
मुकम्मल ये, नाकाबिल हूँ म्यान भी उठाने में-
हुनरमंद इतने हैं ,ऐंठ लेते हैं हड्डियाँ तन की
कमाल है,हाथ मेडल नहीं तालियों के काम आते हैं-
ओलिम्पिक रेस में लिए काबुल के घोड़े छाँट कर
हैरानगी है घोड़ों की शक्ल में गधों की जमात थी -
बेचने को हुश्न ,लगाने को बोलिया बेसुमार दौलत
धुएं के छल्ले से नंगी देह ढक रहा है
कलेंडर , बिस्तर, खूंटी ,जहाज ,बारों में सजाये
देह ,किंग फिशर अभिव्यक्तियों की दलील देता है
वो आ रहा है आया फतह किया तख्तनशीं हुआ
नफ़रत ने बना दिया खानसामा मैदान-ए- जंग में
उदय वीर सिंह
02-02-2012
3 टिप्पणियां:
हर नंगेपन को आवश्यक सिद्ध किये बैठे हैं।
मित्र आपकी टिप्पणी का आवश्यक बोझ जरुर ढ़ो सकते हैं पर अनावश्यक नहीं , मेरी रचना का मान विंदू ही यही है,की हम आत्मावलोकन करने के आदी नहीं हैं,सच को स्वीकार करना हमें नहीं आता , सुखानुभुतियों में जी कर हमें भ्रम ही मिलता है ,यथार्थ नहीं / टिप्पणी निरपेक्ष है या सापेक्ष हमें नहीं पता , पर विचारों के अनुरूप यथेष्ट है /
हम सोचते रहे ढ़ो रहे हैं दुनियां का बोझ,
सच ये है की हम बोझ बन गए दुनिया पर -
सार्थक और शत प्रतिशत सत्य. यही तो अज्ञानता है, सच का बोध नहीं और दम्भ से मरे जा रहें हैं . वाह! करारी चोट! खुश कर दिया आपने तो.
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