
सरमाया है ....
कुचली गयी है कितनी
जो जीवन का सरमाया है ....
ढोल गंवार... नारी
दादी पढ़ती थी
मां पढ़ती है ...
दादा जी व्याख्यायित करते
पिताजी उपकृत होते
सतवचन कह कर ....|
कच्ची उम्र की देव-दासी
नगर वधु का दैवीय सम्मान
कोक व रति शाश्त्र में स्त्री
कितनी महान....|
निर्लज्ज समाज ने देखा सिर्फ
उसकी देह ,कमनीयता, अंग ....
शाश्त्र सम्मत बना दिया
उसकी गुलामी .......|
न दिया प्रतिकार का अधिकार भी,
भूल गया कि.....
वह किसी स्त्री का ही जाया है
मां बेटी बहन पत्नी के सन्दर्भ
मान्य तब तक हैं
जब तक पुरुष को भाया है ,
वरना स्त्री देह से अधिक कुछ भी नहीं ......
पशु घोषित करने वाला,
पशु से भी बदतर
हो आया है....
-- उदय वीर सिंह
विस्वास की नींव, कितनी कमजोर हो गयी है ,
इतनी ऊँची उड़ी पतंग की बिन डोर हो गयी है -
पानी की कमी प्यासा है देश, रिपोर्ट कहती है
खून इतना सस्ता है ,सड़क सराबोर हो गयी है -
बाजार में खड़ी है ,बिकने को इंसानियत मितरां
पहचान में नहीं आती कितनी कमजोर हो गयी है -
रिश्तों का सूनापन बहुत दूर तक बिखरा हुआ है
सुबह कितनी अकेली है,शाम बहुत दूर हो गयी है-
तन्हा दर्द दिल का,ढोना है किसी मजदूर की तरह
बेटा हमदर्दी से दूर , बेटी मजबूर हो गयी है-
नुमायिस बन कर रह गयी है ज़माने में जीस्त
अब महफिलों में मुफलिसी मशहूर हो गयी है -
- उदय वीर सिंह
जो कहा है , आज तुमने
ये तुम्हारा स्वर नहीं है-
सोच लो बैठे जहाँ हो
वो तुम्हारा घर नहीं है-
खा रहे हो कसमें जिनकी
वो कोई ईश्वर नहीं है -
चल दिए हो हाथ पकडे,
वो तेरा रहबर नहीं है-
तुम तो डरते हो जिंदगी से
उसे क़यामत से डर नहीं है-
-- उदय वीर सिंह
जलाओ दिल मितरां कि चिराग जले
अँधेरा ही अँधेरा है बहुत दूर तक -
लगता है गर्दिशों में माहताब भी है
बादलों का बसेरा है बहुत दूर तक -
जद्दोजहद है निकलने की गिरफ्त से
उसकी बाँहों का घेरा है बहुत दूर तक ...
गुम है दामिनी भी नील निलय में कहीं
सन्नाटों का डेरा है बहुत दूर तक -
अंतहीन नीरवता में बिम्ब की तलाश
स्याह रातों का सवेरा है बहुत तक-
संवेदनाओं का द्वार कदाचित खुल ही जाये
वेदनाओं का जखीरा है बहुत दूर तक -
- उदय वीर सिंह
नशे में नाजनीं, महफ़िल में शोहरत
नाकामयाबी में दगाबाजी याद आई
याद आये और भी बहुत जब दौलत थी
दर्दे मुफलिशी में याद आई तो माँ आई-
उसके न रहने पर भी रूह कहती है माँ !
जुबां पर आवाज आई तो माँ आई-
एक ठोकर भी लगा माँ को बुलाते हैं
अपने लाल को उठाने आई तो माँ आई -
जब ज़माने ने पूछा तेरी पहचान क्या है
ये मेरा बेटा है ,शिनाख्त करने माँ आई
जन्नत भी पनाह में है माँ के कदमों की
जिंदगी की सौगात, लायी तो माँ लायी-
हिस्सेदार थे सभी उसकी उल्फत के
खामोश शब-ए-गम को तन्हा सहती रही
बेख़ौफ़ थी वो तीरगी और तूफानों से
लेकर हाथो में मशाल आई तो माँ आई-
-
उदय वीर सिंह
मधु ,मकरंद निश्छल सरिता
मद अभिशप्त हुआ करता
धोती सरिता अपशिष्ट मैल
मद ,जीवन कांति क्षरा करता -
कुछ पल भ्रम, व्यतिक्रम के
जीवन आचार नहीं होते
जब स्नेह पयोधि हृदय में होवे
कई जन्म यहाँ जीया करता-
आशा अवलम्बित जीवन है
नैराश्य पतन को भाता है
पुरुषार्थ विजय का सखा मीत
परमार्थ संकल्प लिया करता-
भर गागर प्रेम ही पावन है
प्यास युगों की मिटती है
प्रेम की डोर सखी घट बांधे
जल - कूप में जा डूबा करता-
- उदय वीर सिंह
घुंघरुओं से नवाजा,
परी कहता था दलाल
मंत्री बन गया है ,
आज तवायफ कह गया -
हल्के हो जाते हैं बरस कर
ये बादल भी,
न इनकी कोई जमीं होती
न आसमां होता-
किसी नाम की तलाश नहीं है
कुए- मुकाम में दोस्त
मुझे मालूम है अपना नाम
और लिखना भी आता है-
इफरात हैं दो हाथ सिजदे को
संवरने को जीने को मितरां ,
रब उनको भी पनाह देता है ,
जिनके हाथ नहीं होते-
--- उदय वीर सिंह
सरफरोशी जन्म लेती है ,
हमारे गाँव में ......
सरफ़रोश हम हो गए ,
रह के उसकी छाँव में-
मत दे कभी तूं खौफ को,
मौत से डरते नहीं
हम वतन की आशिकी में ,
मर मिटेंगे शान में -
द्रोह के उन्माद में मत ,
भूल अपने अंत को
शैतान की औकात कितनी,
वो रहे हैं पांव में-
कट गया सिर फ़िक्र क्या ,
रण कभी छोड़ा नहीं
तन वतन का,मन वतन का,
मर मिटेंगे आन में-
मंजिल हमारी है कहाँ ,
हम बखूबी जानते .....
आँचल तिरंगा ढांप लेगा
जब सिर गिरा मैदान में ......
- उदय वीर सिंह
सरबजीत तुमसे ----
वीर !
बहुत पास थे लगा
कल आओगे -
आँखों में रहने वाले
सितारों में जा बसे ,
चाहोगे कितना छिपना
फिर भी नजर आओगे -
जब लड़खड़ायेंगे कदम फेरों में
बहुत याद आओगे ....
मां फटे कुर्ते को तो सी लेगी
दिल को कैसे
टांक पाओगे .....|
- उदय वीर सिंह