अगर तुम पत्थर पर ऐतबार करते हो।
एक मुकद्दस शीशे पर वार करते हो।
टूट कर बिखरने का दर्द मामूली नहीं,
वादियों में खिजां का इंतजार करते हो।
भूख है तो आग से भी खेलना होता है,
आग से नहीं रोटियों से प्यार करते हो।
उदय वीर सिंह।
अगर तुम पत्थर पर ऐतबार करते हो।
एक मुकद्दस शीशे पर वार करते हो।
टूट कर बिखरने का दर्द मामूली नहीं,
वादियों में खिजां का इंतजार करते हो।
भूख है तो आग से भी खेलना होता है,
आग से नहीं रोटियों से प्यार करते हो।
उदय वीर सिंह।
.........✍️
अपनी लिखो मुकद्दर,
लिखता रहा है कोई।
मालिक हो अपने घर के
रहता रहा है कोई।
बेजुबां नहीं हो तुम,
बेजुबां से हो गए हो,
खोलो भी अब जुबां को
कहता रहा है कोई ।
हालात से है वाकिफ़
दर्दे सफ़र तुम्हारा,
अपनी कहो जुबानी ,
कहता रहा है कोई।
ये बे-अमन की आग
बोई है किसने वाइज,
जलना था इसमें किसको,
जलता रहा है कोई।
उदय वीर सिंह।
......✍️
नफ़ा और नुकसान को व्यापारी देखता है।
रास्ता निज आराध्य का, पुजारी देखता है।
इशारों में मुकर्रर कर देता है सजा उनकी,
बेजुबानों की आखों में मदारी देखता है।
बिछाई जाल ऊपर दाने शीतल नीर भी,
घात लगाये बैठा दूर शिकारी देखता है।
मीर चश्मों से देखता क्या शेष झोपड़ी में,
मुफ़लिस प्यार से मीर की अटारी देखता है।
उदय वीर सिंह।
मांग रही बर्बादी की उस अरदास में
हम शामिल न हुए।
वंचित करती जीवन को उस न्यास में
हम शामिल हुए।
लांछित करती गरिमा को उस प्यास में
हम शामिल न हुए।
अवरोध बने परवाज़ों के, आकाश में
हम शामिल न हुए।
प्रतिदान मिलेगा क्या हमको उस आश
में हम शामिल न हुए।
अश्लील सृजन की बेदी के विन्यास में
हम शामिल न हुए।
छद्म समष्टि की गाथा उस सन्यास में
हम शामिल न हुए।
श्रम- बिंदु के कोपल कंचन के परिहास
हम शामिल न हुए।
उदय वीर सिंह।
.......✍️
था भरोषे की शाल में दिगम्बर हो रहा है।
ज़हर बंद था शीशी में समंदर हो रहा है।
जरूरत थी नख़लिस्तान कि सहरा में,
शीतल पवन का झोंका बवंडर हो रहा है।
जरूरत थी आग की बुझे हुए चूल्हों में,
जल रही है ज़मीन मौन अम्बर हो रहा है।
तंजीमों का रंगमंच भीअब रंगीला हो गया,
सिकंदर हो रहा , कोई कलंदर हो रहा है।
उदय वीर सिंह।
रास्ते तंग हैं , आग ही आग है,
बेबसी बो रहा आदमी के लिए।
सूर तुलसी के घर - द्वार ही बंद हैं,
जायसी ,मीर की शायरी के लिए।
गंगा यमुना की धारा किधर जा रहीं,
आदमी कुफ़्र है आदमी के लिए।
थे किताबों के आलिम कहाँ खो गए,
फ़र्ज़ गुमनाम हैं, आदमी के लिए।
शहर के शहर वहशियों के हुए,
मुख़्तसर आदमी, आदमी के लिये ।
उदय वीर सिंह।
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आंधियां चल रही हैं चिराग़ भी जल रहे हैं।
आंधियों से ही बल चिराग़ों को मिल रहे हैं।
कांटों की सेज से भी गमो रश्क नहीं कोई,
नींद बहुत गहरी है, ख़्वाब भी मचल रहे हैं।
कम न होंगे कभी शीशों के दीवारे शहर,
सुना है शर्मसार हो पत्थर भी पिघल रहे हैं।
उम्र फ़रेब की बहुत लंबी नहीं होती मितरां,
पर्वतों के भीतर बहुत सोते भी पल रहे हैं।
उदय वीर सिंह।
...✍️
कल आंगन था आज बाजार हो गया।
गोपनीय दस्तावेज था अखबार हो गया।
लगने लगी हैं बोलियां नींव के ईंटों की,
कल साहूकार था आज कर्ज़दार हो गया।
धरती भी वही आसमान भी वही तालिब
कल फलदार था शज़र कांटेदार हो गया।
टूट जाएंगी वर्जनाएं कुछ इस तरह बेदम,
कल कंगन था आज कटार हो गया।
उदय वीर सिंह।
..मां के साथ ..मां के बाद.✍️
मां, मां ही नहीं एक पूरी
कायनात होती है।
जब जिंदगी में धूप होती,
मां बरसात होती है।
गर कुछ बे-हिसाब होती है
मां की दात होती है।
मुक़द्दर भी खौफ़ में होता,
जो मां की बात होती है।
मां कहती है न भूल रब को
जब अरदास होती है।
जब भी ग़मज़दा होता हूँ
मां पास होती है।
उदय वीर सिंह।
🙏.....
कुछ अनमोल पलों में एक पल यह भी कि " पंडित तिलकराज शर्मा स्मृति न्यास " (संयुक्त राज्य अमेरिका) के चयन मंडल द्वारा मुझे 2022 के लिए " शिखर सम्मान " मेरे ( साहित्यिक योगदान हेतु ) चयनित किया गया है। इस सम्मान से दिनांक 30 अप्रैल 22 को दिल्ली में त्यागी पब्लिक स्कूल के सभागार में मुझे विभूषित किया गया।
सम्माननीय न्यास के अध्यक्ष पंडित इंद्रजीत शर्मा जी, संरक्षक श्री डॉ आशीष कंधवे जी, संरक्षक श्री प्रेम भारद्वाज ज्ञानभिक्षु जी व चयन मंडल का हृदय से आभार ज्ञापित करते हैं।
" शिखर सम्मान " अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद माननीय श्री हुकुमचंद्र गणेशीया जी, शिक्षाविद प्रोफे. उदय प्रताप सिंह जी, शिक्षाविद प्रोफे. डी एन दीक्षित जी ,स्वनाम धन्य महान समाज सेवी पंडित इंद्रजीत शर्मा जी, व सुविज्ञ शिक्षा विद, ख्यातिलव्ध संपादक ,आलोचक,(मुख्य संपादक अंतराष्ट्रीय पत्रिका गगनांचल) ,नव नियुक्त सांस्कृतिक निदेशक( भारत सरकार) डॉ आशीष कंधवे जी ,तथा समाजसेवी प्रेम भारद्वाज ज्ञानभिक्षु जी ,ख्यातिलवद्ध योगगुरु स्वामी सूर्यदेव जी व प्रसिद्ध कवि सुनील जोगी जी द्वारा बड़े सम्मान व आदर से प्रदान किया गया।
अभिभूत हूँ इस आदर सम्मान से विभूषित होकर,निश्चय ही इसमें वाहेगुरू व आप सभी शुभेच्छुओं का अप्रतिम स्नेह व आशीष शामिल है। कृतज्ञ हैं हम आप सके प्रति।
सदैव की भांति प्यार सदैव मिलता रहेगा मेरा विस्वास है। परमात्मा से आप सबके लिए शांति स्वास्थ्य खुशहाली की अरदास करता हूँ। गोरखपुर गृह वापसी के बाद ये खुशी के क्षणआपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। खुशी होगी आपकी आशीष पाकर।
उदय वीर सिंह।
गोरखपुर ।