स्पर्श ....
उसे
पर नहीं पग मिल जाते
दर्द नहीं,
दर मिल जाते,
गूंगी हुयी जुबान को
स्वर मिल जाते.....
तार- तार ही सही
मा का आंचल,
पकड़ कर चलने को पिता के
कर मिल जाते......
टूटी भीत के ताक पर
चश्मा रखा है
बड़ा वीर पहनता है
बीजी का जरीदार दुपट्टा
मलबे में फंसा है
कलाईयाँ सुनी रह गयीं
भर नजर देख लेता
कोई इश्वर मिल जाते
बंधु - बांधव, सखा सब ओझल हुए
गए दूर...
गए दूर...
चलना तो चाहता है
मालूम नहीं गंतव्य,
किधर जाये ,
जहाँ
राह कोई
रहबर मिल जाते....
अपनों का घर
मिल जाते .......
- उदय वीर सिंह
7 टिप्पणियां:
मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ। नहीं जानता, काम का बोझ है या उम्र का दबाव!
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पूर्व के कमेंट में सुधार!
आपकी इस पोस्ट का लिंक आज रविवार (7-7-2013) को चर्चा मंच पर है।
सूचनार्थ...!
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काश मिल जाती इसे भी घनी छाँव !
चाह मिलेगी, राह मिलेगी,
नहीं अकेली आह मिलेगी।
गहन भाव लिए सुंदर प्रस्तुति
वाह जी !!! बहुत उम्दा लाजबाब प्रस्तुति,,,
RECENT POST: गुजारिश,
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति...
बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर
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