अभिव्यक्ति का एक कामिल युग..✍️
महज कुछ साल लगते हैं अक्लमंद होने में।
कई सदियां लगती हैं मुंशी प्रेम चंद होने में।
आंसू क्रंदन वेदना भेद षडयंत्रों की मेखला,
कमर टूट जाती है समाज का फरजंद होने में।
उदय वीर सिंह।
अभिव्यक्ति का एक कामिल युग..✍️
महज कुछ साल लगते हैं अक्लमंद होने में।
कई सदियां लगती हैं मुंशी प्रेम चंद होने में।
आंसू क्रंदन वेदना भेद षडयंत्रों की मेखला,
कमर टूट जाती है समाज का फरजंद होने में।
उदय वीर सिंह।
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प्रेम-गीत भी लिखूंगा जब
मौसम अनुकूल मिलेगा।
पीड़ा व अवसाद भरे मन
कोई कैसे फूल खिलेगा।
आंसू क्रंदन खून के छींटे
रिसते घावों के मंजर,
नीलाम आबरू के बाजार
साया भी प्रतिकूल मिलेगा।
सत्य चुना जाए दीवारों में
जब हास्य मिले चीत्कारों में
निर्वस्त्र सुता हो सड़कों पर
हर साखों पर शूल मिलेगा।
लिपटा झूठ हर जर्रा जर्रा
निर्लज्ज मनस कामी बहरा
पाखंड ऊंचाई को आतुर
सच बेबस हो धूल मिलेगा।
विष को परिमल नाम मिला
आडंबर को परिधान मिला,
अहंकार की शमशीरों से वीर
क्या जन- पथ निर्मूल मिलेगा।
माया व मायावी अंधड़ जाएंगे
दया प्रेम सत्य ही रह जाएंगे
खल- पवन विषैली गह्वर होगी,
सत्य अटल स्थूल मिलेगा।
उदय वीर सिंह।
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मांगा मंदिर मस्जिद तो अस्पताल कैसे मिलता।.......✍️
तुम्हारा पाप ही तुम्हारी पहचान बन जायेगा।
दौर वाकिफ़ होगा भले तूअनजान हो जाएगा।
लगे खून के दाग दामन पर बूटे नहीं होंगे,
मजार पर दीये न होंगे भले सुल्तान हो जाएगा।
ये आंसू खारे ही रहेंगे गंगा जल नहीं होंगे,
नफ़रत जुल्म की बद्दुआ में तमाम हो जाएगा।
इंसानियत पहचानती है हर दीवारो दहलीज को
बेवजूद करदेगी चाहे कितना बेईमान हो जाएगा
उदय वीर सिंह।
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ले जा अपना अमृत पीने की
अब ख्वाहिश नहीं है।
ले जा अपने ख़्वाब आंखों में,
अब गुंजाइश नहीं है।
इन काग़जी फूलों का रुतबा
एक बरसात बता देगी,
फूटेंगे कल्ले जड़ों से बाग,
गमलों की पैदाइश नहीं है।
हमने दिया भीख नहीं मांगा
सिवा अपने दातार के,
सीते हैं जख़्मों को अपने हाथ
हौसला है नुमाईश नहीं है।
उदय वीर सिंह।
🙏🏻कोटि-कोटि प्रणाम अमर शहीद भाई तारू सिंह जी को। जिन्हें आतततायियों द्वारा नवाब जकारिया खान की निजामत में उनकी खोपड़ी उतार कर 1जुलाई 1745 लाहौर में इस्लाम कबूल न करने पर 25 वर्ष की आयु में निर्ममता पूर्वक शहीद किया गया।
उनके शहीदी दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि🙏🏻
उदय वीर सिंह।
वहशियों के दिन वहशियों की ही शाम होगी।
कब तलक बेगुनाहों को सजा ईनाम होगी।
सिले हैं होंठ हमनवाजों के कोई वजह होगी,
बोलेंगे एक दिन पत्थरों की भी जुबान होगी।
ये सैलाबी मंजर बेहिसाब यूं ही नहीं आया,
कहीं आंसुओं से भरी नदी कोई परेशान होगी।
शिफत है हवाओं की बावस्ता होना हर दर से,
मंदा कौन चंगा पहचान उनकी सरेआम होगी।
उदय वीर सिंह।
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संस्कृति संस्कार छिपे हुए थेअब
बाहर आने लगे हैं।
मनचाहा सावन मनभावन मौसम
के बादल छाने लगे हैं।
शौचालयों की कितनी कमीं हुई
लगती है शहरियों को ,
इंसान,इंसानियत के सिर मल-मूत्र
बेख़ौफ़ गिराने लगे हैं।
ये इक्कीसवीं सदी का उच्च भारत
चला आदिम अंधता की ओर,
सुना है मुक्ति के लिए गुलाम भी
अपना सिर उठाने लगे हैं।
रह गए हैं हम आजाद मुल्क के
गुलाम तमाशबीन होकर,
हम तरक्कीपसंदों की लानतों पर
तालियां बजाने लगे है।
उदय वीर सिंह।
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आजाद दहशतगर्दों को गुलाम लिखने दो।अनाम हैं कुछ सूरज चांनआसमान लिखने दो।मिटने न दिए इंसानियत की इबारतों के हर्फ़
उन फ़रिश्तों के नाम हजारों सलाम लिखने दो।
गिरवी रखे हुए हैं जिनके जमीरो ईमान सारे