फूलों की बस्ती में काँटों की महफ़िल
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -
फुटपाथ हासिल था मरने से पहले
बाद मरने के अब मकबरा दे रहे हैं -
खुदगर्ज का कैसा अंदाज आला
हुनरमंद को सिरफिरा कह रहे हैं -
निकले मोती पलक से मजबूर हो
कैसे नादार को मसखरा कह रहे हैं -
बैठे होने को नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार को आसरा कह रहे हैं -
रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं -
उदय वीर सिंह
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -
फुटपाथ हासिल था मरने से पहले
बाद मरने के अब मकबरा दे रहे हैं -
खुदगर्ज का कैसा अंदाज आला
हुनरमंद को सिरफिरा कह रहे हैं -
निकले मोती पलक से मजबूर हो
कैसे नादार को मसखरा कह रहे हैं -
बैठे होने को नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार को आसरा कह रहे हैं -
रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं -
उदय वीर सिंह
5 टिप्पणियां:
वाह !
सामयिक सच कहा है, यही हाल बना हुआ है।
रौशनी में गवारा एक कदम भी नहीं
अंधेरों के आशिक़ अप्सरा कह रहे हैं,
सुंदर गजल ...!
RECENT POST - प्यार में दर्द है.
किसी सब्जा ज़ार में मांगी दो गज जमीं..,
इक उम्र की तिश्नगी है औ सहरा दे रहे.....
बहुत ख़ूब!
एक टिप्पणी भेजें