मेरे कर मिट्टी का घट है
पर अमृत से संतृप्त सुघर
घट कनक तुम्हारे हाथों मेँ
विष विद्वेष से छलके भरकर -
मेरी वाणी में मधु नहीं है
छल से दूर निश्छल तो है
अंतस में घात मुस्कान अधर
मन मैला तन सुंदर सुंदर -
तेरे पथ में बिता जीवन
रही प्रतीक्षा अथक निरंतर
तक गंतव्य द्विप्त दीप था
तू छोड़ चला बनकर रहबर -
3 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.01.2015) को ""कन्या भ्रूण हत्या" (चर्चा अंक-1873)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
बहुत सुन्दर ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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