रहते हैं पर्दों में हिजाब
नापसंद है
जवाब तो जवाब हैं, सवाल नापसंद हैं -
उठाई जो नजर तो अपराध होता है
हिसाब तो हिसाब है आवाज नापसंद है -
बेबसी के सहरा में बचपन भटकता है
रोटी तो रोटी है, ख्वाब नापसंद है -
चूल्हे को छोड़ आग जलती है पेट में
रौशनी तो रौशनी ,चिराग नापसंद है -
उदय वीर सिंह
3 टिप्पणियां:
बसी के सहरा में बचपन भटकता है
रोटी तो रोटी है, ख्वाब नापसंद है
.. सच पेट की आग बुझे तो ख्वाब सूझे ....
मर्मस्पर्शी रचना ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-03-2016) को "होली तो अब होली" (चर्चा अंक - 2293) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
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