खाली चूल्हे ,
आग दिल में ,
पानी बिन गागर
तन रोगों की खान ,
कोलाहल मानस में ,
घर शमशान ,
आशक्ति, पलायन से
विरक्ति , सृजन से
संवेदना से दूरी,
नाउम्मीद होने लगे हैं ,
चेतना में थे,
अब बहकने लगे हैं ,
पीर शैलाब हो गयी है ,
वेदना में ,बहने लगे हैं ,
ले लाश कन्धों पर ,लाशों से
गुजरने लगे हैं लोग .....।
बुढा हो गया है बचपन ,
यौवन से मुकर,दो जून की रोटी
भारी हो गयी है ,
पांव सरकने लगे चढाइयोंसे ...... ,
दरकने लगी जमीन ,
ख्वाब की खिलखिलाहट
याद आयी नहीं कि ,
रोने से भी
वैर, रखने लगे हैं
लोग।
- उदय वीर सिंह
9 टिप्पणियां:
सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति
हँसने के कारण नहीं, रोना भी भूल गये हैं लोग..सशक्त रचना।
उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।
आपकी लेखनी में दम है।
सार्थक रचना!
मित्र उदयवीर जी,,,,
सच को कहती उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,,बधाई स्वीकारे,,,
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
सशक्त अभिव्यक्ति |
आशा
वाह उदय वीर जी, बढ़िया.
बेहतरीन..
:-)
मार्मिक और हृदयस्पर्शी.
दिल में टीस जगाती प्रस्तुति.
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