माँ शब्द नहीं संबल है .....कोटिशः प्रणाम !
देकर आँचल ओट गगन को रोक लेती है
नद क्या विपदा के सागर को सोख लेती है
ग्रन्थों के पन्ने अधूरे कलम बेजान लगती है
माँ का मुकाम ऊंचा है जन्नत तोड़ लेती है -
वीर खौफजदा रहते हैं तूफानॉ के काफिले
माँ ऐसी दीवार है की रास्ता मोड देती
उदय वीर सिंह
देकर आँचल ओट गगन को रोक लेती है
नद क्या विपदा के सागर को सोख लेती है
ग्रन्थों के पन्ने अधूरे कलम बेजान लगती है
माँ का मुकाम ऊंचा है जन्नत तोड़ लेती है -
वीर खौफजदा रहते हैं तूफानॉ के काफिले
माँ ऐसी दीवार है की रास्ता मोड देती
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-05-2017) को
टेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी; चर्चामंच 2632
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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