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जिंदगी अपनी थी मेहमान तो न थी।
दुआ थी अपनों की सामान तो न थी।
भरी थी गमों खुशियों की तकरीर से,
ज़मीं पर थी खालीआसमान तो न थी।
सजी थी ईमानो इश्क के बेल बूटों से,
दौलत से भरा खाली मकान तो न थी।
जुनूनी रफ्तगी है दौड़ में हमीं-हम के,
मोहब्बत के सफ़र में परेशान तो न थी।
दस्तक दहलीजों पर तौहीद की आयी,
कभी जबान हिन्दू मुसलमान तो न थी।
उदय वीर सिंह।
3 टिप्पणियां:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान होना ही व्हहिये।
सुन्दर
हजूर कहाँ है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ? हम भी आपके ब्लॉग पर आ कर कुछ कहते हैं |
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