अभिनन्दन है विस्थापन है ,
अभिषेक कहीं सूनापन है ,
अंतर्विरोध के युग्मों में ,
पराया है अपनापन है -
ताप ,तृष्णा की ज्वाला है ,
ईर्ष्या की तपती शाला है ,
द्वेष ,दंभ ,पाखंड के नाले ,
गंगा की पावन धारा है -
शूलों ने नैराश्य संजोया ,
फूलों का हँसता आँगन है -
चक्षुहीन ,अंतस की ऑंखें ,
लिपीहीन वक्तव्यों में ,
ग्रंथों के विश्लेषण हैं ,
आवद्ध कहाँ कब शब्दों में-
विचलन है, स्पंदन है
अपकार , कहीं अराधन है-
अनुशीलन है, अध्यापन है,
संवेग कहीं बहरापन है,
जीवन के तथ्य तंतुओं का ,
बंधन है , बिखरापन है -
अविरल प्रेम के स्रोत सतत ,
चिर- साश्वत हैं , नयापन है -
नैराश्य भी है तो आस भी है ,
पीड़ा है , पश्चाताप भी है ,
इतिहास के पन्ने कहते हैं
कांटे हैं तो ताज भी है -
टूटे बहुत , पर मिटे नहीं ,
अपनी संस्कृति का दर्शन है -
उदय वीर सिंह
05 -04 -2012 .
अभिषेक कहीं सूनापन है ,
अंतर्विरोध के युग्मों में ,
पराया है अपनापन है -
ताप ,तृष्णा की ज्वाला है ,
ईर्ष्या की तपती शाला है ,
द्वेष ,दंभ ,पाखंड के नाले ,
गंगा की पावन धारा है -
शूलों ने नैराश्य संजोया ,
फूलों का हँसता आँगन है -
चक्षुहीन ,अंतस की ऑंखें ,
लिपीहीन वक्तव्यों में ,
ग्रंथों के विश्लेषण हैं ,
आवद्ध कहाँ कब शब्दों में-
विचलन है, स्पंदन है
अपकार , कहीं अराधन है-
अनुशीलन है, अध्यापन है,
संवेग कहीं बहरापन है,
जीवन के तथ्य तंतुओं का ,
बंधन है , बिखरापन है -
अविरल प्रेम के स्रोत सतत ,
चिर- साश्वत हैं , नयापन है -
नैराश्य भी है तो आस भी है ,
पीड़ा है , पश्चाताप भी है ,
इतिहास के पन्ने कहते हैं
कांटे हैं तो ताज भी है -
टूटे बहुत , पर मिटे नहीं ,
अपनी संस्कृति का दर्शन है -
उदय वीर सिंह
05 -04 -2012 .
11 टिप्पणियां:
नैराश्य भी है तो आस भी है ,
पीड़ा है , पश्चाताप है ,
इतिहास के पन्ने कहते हैं
कांटे हैं तो ताज भी है
क्या बात हे! वाह!!
इसे भी देखें-
‘घर का न घाट का’
बेहद खूबसूरत............
नैराश्य भी है तो आस भी है ,
पीड़ा है , पश्चाताप है ,
इतिहास के पन्ने कहते हैं
कांटे हैं तो ताज भी है -
सादर.
अनुशीलन है,अध्यापन है,
संवेग कहीं बहरापन है,
जीवन के तथ्य तंतुओं का ,
बंधन है बिखरापन है
वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,अच्छी प्रस्तुति,..
MY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
टूटे बहुत , पर मिटे नहीं ,
अपनी संस्कृति का दर्शन है -
सार्थक रचना ...
शुभकामनायें ..
हर प्रकार के रंगों से सजा जीवन
टूटे बहुत , पर मिटे नहीं , अपनी संस्कृति का दर्शन है -
सुन्दर सार्थक सोच... शुभकामनाएं
चक्षुहीन ,अंतस की ऑंखें ,
लिपीहीन वक्तव्यों में ,
ग्रंथों के विश्लेषण हैं ,
आवद्ध कहाँ कब शब्दों में-
विचलन है, स्पंदन है
अपकार , कहीं अराधन है-
क्या बात है ... !!
सुन्दर सृजन, बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें, आभारी होऊंगा.
बहुत सुंदर ...यही जीवन है जहां आशा के साथ निराशा भी ही ...
बहुत बढ़िया भाई जी ...
शुभकामनायें आपको !
अपनी संस्कृति का दर्शन है -
बहुत सुंदर रचना !
ਬਹੁਤ ਹੀ ਵਧੀਆ ਲੱਗੀ ਇਹ ਖੁਲ੍ਹੀ ਕਵਿਤਾ
ਜਿੱਥੇ ਗੰਗਾ ਦੀ ਪਵਿਤਰ ਧਾਰਾ, ਫੁੱਲਾਂ ਵਾਲ਼ਾ ਵਿਹੜਾ ਹੈ।
ਬਹੁਤ ਵਧਾਈ !
ਹਰਦੀਪ
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