ढूंढा,
चार्वाकों , सांख्य,बौद्ध, जैन ,
द्वैत ,अद्वैत दार्शनिकों ने ,
अंधकार के गह्वर में
तिरोहित ,
पैरों में छाले,
फटे वसन,अश्रु-भरे नेत्र
कृशकाय तन ,
अस्थियाँ अवशेष
अस्पृश्य हो चुकी ,
इंसानियत को ....../
उपचारार्थ ,दफ़न कर दिया
इन्सान में ,
फूटेंगे कल्ले ,
खिलेंगे ,सदाचार ,समरसता ,
विकास के प्रसून
सुरमई शाम के बनेगे गीत
होगा मंगल प्रभात ,
यशता ,उत्कृष्टता मनुष्यता का .../
पर ऐसा हो न सका ,
बाँझ हो गयी
इंसानियत ....?
या
उर्वरा भूमि इन्सान की ,,?
या
दोनों .......?
उदय वीर सिंह .
18 टिप्पणियां:
सतश्री अकाल वीर जी,
आपकी लेखनी की भाषा-शैली और प्रस्तुति का अंदाज आपका साहित्य के प्रति समर्पित अनुरागिता को दर्शाता है। बहुत सुंदर । मेरी कामना है कि आप निरंतर सृजनरत रहे । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
प्रश्न विचारणीय हैं। मुझे लगता है कि अवतार, बौद्ध, गुरुजन, दिशा-निर्देशक आते हैं, समय को प्रभावित करते हैं लेकिन उनके अवसान के बाद उस विरासत को हम साधारणजन ही बनाते-बिगाड़ते हैं। किसी के बनाये घर की मरम्मत और देखभाल तो उसमें रहने वालों को करनी ही पड़ेगी, वरना बड़े-बड़े भवन ढह जाते हैं।
फूटेंगे कल्ले ,
खिलेंगे ,सदाचार ,समरसता ,
विकास के प्रसून
सुरमई शाम के बनेगे गीत
होगा मंगल प्रभात ,
यशता ,उत्कृष्टता मनुष्यता का .../
जब जब आपके मानस से उत्कृष्ट विचार और
भाव प्रकट होते रहेंगें, इंसानियत का फिर से
उदय होता ही रहेगा.
सच्चाई को कहती अच्छी प्रस्तुति
बहोत अच्छी रचना है
हिन्दी दुनिया ब्लॉग (नया ब्लॉग)
बाँझ हो गयी
इंसानियत ....?
या
उर्वरा भूमि इन्सान की.,,,
वाह,,,, बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,बेहतरीन रचना,,,,,
आपकी पोस्ट कल 14/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा - 902 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 14-06-2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... ये धुआँ सा कहाँ से उठता है .
आशाओं का प्रभात रात की निराशा बन जाता है..फिर दिन आयेगा..
सच कहती ... उत्कृष्ट प्रस्तुति।
अच्छी भावाभिव्यक्ति
विचारने के बाद लिखा सत्य ... अनुराग जी का कथन सत्य अभिव्यक्ति हा इस लाजवाब रचना की ..
बाँझ हो गयी
इंसानियत ....?
या
उर्वरा भूमि इन्सान की ,,?
या
दोनों .......?
....बहुत गहन सटीक अभिव्यक्ति...
बेहतरीन
सादर
भटक गए है आज लक्ष्य से,
संस्कृति से हम दूर हो रहे.
अध्यात्म शक्ति को भूल गए,
भौतिकता में ही मशगूल रहे.
पूर्वजों की उपलब्धियों में,
छिद्रान्वेषण ही नित करते रहे.
परिभाषाएं स्वार्थ परक,
परम्पराएँ सुविधानुकुल गढ़ते रहे
मोक्ष - मुक्ति, निर्वाण - कैवल्य,
फना -बका में ही उलझे रहे.
श्रेष्ठतर की प्रत्याशा में,
वर्चस्व की कोरी आशा में;
अंहकार - इर्ष्या में जलकर,
अरे ! देखो क्या से क्या हो गए?
बनना था हमें 'दिव्य मानव',
और बन गए देखो ' मानव बम'.
इससे तो फिर भी अच्छा था,
हम 'वन - मानुष' ही रहते.
शीत - ताप से, भूख -प्यास से,
इतना नहीं तड़पते.
अब रहे न कोई 'वन मानुष',
अब बने न कोई ' मानव बम'.
कुछ ऐसी अलख जगाओ,
दिव्यता स्वर्ग की; यहीं जमीं पर लाओ.
अब हमको मत बहलाओ,
दिव्यता स्वर्ग की; इसी जमीं पर लाओ.
मुझे तो दोनों ही लगते हैं।
नियों का आदरणीय डॉ.मनोज व डॉ जे .पी. तिवारी जी ,साधुवाद आपकी टिप्पणियों का / जीवन ,सतत तराशने की प्रक्रिया का आधार बना चुके अपनी मनोभावना ,व प्रत्यासा में बीतता है ,जिसका निहितार्थ अधिकतम शुभ ही होता है , परन्तु अपनी विवशता, कम ,श्लाघा में अपना विश्लेषण , परिभाषा ,परिणाम, परिमाण को प्रभावित करने में पूरा यत्न लगा देने का घृणित कार्य अधिकतम की दिशा में अग्रसर रहता है ,ऐसा क्यों है ? सर्वोच्चता लक्ष्य की होनी चाहिए ......./ जो मनुष्यता को उच्च शिखर तक ले जाये ....अब तक ऐसा न हो सका ...... सरोकार रखना होगा हम सबको ....मनुष्यता के लिए ,उसके उन्नयन के लिए .... सादर .
बाँझ हो गयी
इंसानियत ....?
या
उर्वरा भूमि इन्सान की ,,?
या
दोनों .......?
अच्छी प्रस्तुति !
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