बुलबुलों के आशियाने वो हमें देते रहे - बैसाखियों के रहगुजर हो वो हमें कहते रहे सहरा में उनके बहता पानी अश्क हम पीते रहे - कुछ कम लिखी थी बदनसीबी यार बन लिखते रहे - यारा प्यास उनकी खून की है जाम बन ढलते रहे - उदय वीर सिंह
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। -- आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (24-05-2014) को "सुरभित सुमन खिलाते हैं" (चर्चा मंच-1622) पर भी होगी! -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (24-05-2014) को "सुरभित सुमन खिलाते हैं" (चर्चा मंच-1622) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
Bahut hee umdaa
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