मेरा देश,साज़िशों का, शिकारहो गया -
स्वस्थ था ,संपन्न था, बीमार हो गया -
फासले दिलों में, बेसुमार हो गए
मंजिले - मुसाफिर की राह न रही ,
इनसानियत का घर,कत्लगाह हो गया -
घूरती हैं आँखें, अजनवी हो गए हैं ,
आँगन, एक थाली विद्वेष हो गए हैं ,
प्रसाद भी प्रभु का, व्यापार हो गया -
दौरे सितम में, हमसे दूर चली गयी -
लुटा रहबरों ने ,जिनसे प्यार हो गया -
चलते हैं एक कदम, कीमत वसूलते हैं ,
बेचते थे फूल , अब मुल्क बेचते हैं-
जोर और जुल्म का बाजार हो गया -
मनीषियों का देश ,तार- तार हो गया-
उदय वीर सिंह
8 टिप्पणियां:
मनीषियों का देश बेमन चलने लगा है..
चलते हैं एक कदम, कीमत वसूलते हैं ,
बेचते थे फूल , अब मुल्क बेचते हैं-
जोर और जुल्म का बाजार हो गया -
उदय वीर जी, आपने एक दम सच कहा,,,
लाजबाब अभिव्यक्ति के लिए बधाई,,,,,,
चलते हैं एक कदम, कीमत वसूलते हैं ,
बेचते थे फूल ,अब मुल्क बेचते हैं-
जोर और जुल्म का बाजार हो गया -
आज की सच्चाई बताती लाजबाब अभिव्यक्ति,,
उदयवीर जी, बधाई,,,,,
RECENT POST,परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (01-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
घूरती हैं आँखें, अजनवी हो गए हैं ,
आँगन, एक थाली विद्वेष हो गए हैं ,
प्रसाद भी प्रभु का, व्यापार हो गया -
क्या बात है ---बहुत सार्थक पंक्तियाँ बहुत बधाई
बहुत ख़ूब!
एक लम्बे अंतराल के बाद कृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो
बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति और देश के प्रति चिंता |
मनीषियों का देश तार तार हो गया ....
बड़ी प्यारी रचना भाई जी ...आभार आपको !
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