अधिकार नहीं मिलते ,प्रतिकार विहीनों को
जीना भी क्या जीना है अधिकार विहीनों को -
कहाँ गिरेंगे क्या मालूम शोलों पर या सागर मेँ
ले जाती हवा उड़ा करके पत्ते शाखविहीनों को-
वो राह बहुत सूनी है जिस राह गए वालिदानी
वे देकर विदा हुए तुमको दरिया मेँ शफीनों को-
बिखरे हैं अँधेरों मेँ कुछ दीप जलाने शेष अभी
पत्थर ही हाथ मेँ आएंगे पहचाने न नगीनों को -
उदय वीर सिंह
जीना भी क्या जीना है अधिकार विहीनों को -
कहाँ गिरेंगे क्या मालूम शोलों पर या सागर मेँ
ले जाती हवा उड़ा करके पत्ते शाखविहीनों को-
वो राह बहुत सूनी है जिस राह गए वालिदानी
वे देकर विदा हुए तुमको दरिया मेँ शफीनों को-
बिखरे हैं अँधेरों मेँ कुछ दीप जलाने शेष अभी
पत्थर ही हाथ मेँ आएंगे पहचाने न नगीनों को -
उदय वीर सिंह
3 टिप्पणियां:
बहुत ही शानदार रचना की प्रस्तुति।
बहुत ही शानदार रचना की प्रस्तुति। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
जय माँ अम्बे।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-10-2015) को "देवी पूजा की शुरुआत" (चर्चा अंक - 2132) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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