हे संसद !
संविधान की गुरुता का देख सके विधि आदर तूँ
गंतव्य बने स्तम्भ बने मंतव्य बने हित चिंतन का
राष्ट्र निरंतर प्रणीत हो पथ्य-पाथेय की गागर तूँ -
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स्थान न पाये देश- द्रोह घाती प्रतिघाती विध्वंसक
रक्षार्थ भारत की भूमि अस्मिता बनी रहे उद्धारक तूँ
आशाएँ धूमिल हों हठ कामी वंचक द्रोही उर की
समता स्नेह जीवन मूल्यों की अखंड राशि का सागर तूँ -
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (26.02.2016) को "कर्तव्य और दायित्व " (चर्चा अंक-2264)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
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