रविवार, 17 मार्च 2019

मृग मरीचिका के सागर ...

अर्थों के घन चक्रव्यूह में विष बेल समझ आई
मृग मरीचिका के सागर ले नाव तैरने आई -
मरुधर के आँगन में शीतल छाँव संजोये बैठी है
मेघों की सास्वत जलधारों में वसन सुखाने आई -
संचित पीर ह्रदय कब वांछित पर्वत होती जाएगी
पाकर धार प्रवाह बनेगी गंतव्य मधुर पा जाएगी -
कल की गहन अंधेर निशा रश्मि शिखर को पाई
काँटों से बिंध कर बुलबुल फूलों में चहकने आई -
पहचाने जाओगे कर्मों से मत क्लेश गढ़ो परिधानों के
प्रीत के बादल पीर हरेंगें मत चेर बनो सर संधानों के -
नभ में दीवारें कहाँ बनीं रोकी कब तेरी परछाईं
कर पंख सृजित परवाज भरो नीचे होंगे पर्वत खाई-
दाखों का रस संरक्षित कर मदिरा बनाना चाहूँगा
विमम्र प्रतिकार मिलेगा तुमको मद तत्त्व बुझाने आई -
उदय वीर सिंह



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