सोमवार, 5 सितंबर 2022

धर्म जाति के तालों में....





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सागर  डूब  रहा जा रंगमहल के प्यालों में।

नदिया डूब रही है  कीचड़ -छिछले नालों में।

एक धरती का टुकड़ा कितना पिछड़ा जाता,

वतन हमारा डूब रहा धर्म-जाति के तालों में।

इश्तिहार  उत्थान  के  टूटे बिखरे बिलट गए,

भूख यतिमी मजबूरी आयी सबकी थालों में।

पाखंडों की हवेली से उच्च हिमालय बौना है,

मनुज जला जाता उन्माद भेद की ज्वालों में।

उदय वीर सिंह।

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