रविवार, 15 सितंबर 2019

सब तेरी ही जाति के निकले .....


सब तेरी ही जाति के निकले -
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में
गाँव शहर चौराहों में ,
एक ईश्वर की दात के निकले-
सब मेरी ही जाति के निकले -
आँखों में सपने सबके थे
रंग आंसू के एक मिले थे
संवेदन की राग रसीली
वेदन के रंग एक मिले थे -
मधुराधर शब्दों से आयन
सबसे पहले आप के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
शर्दी की पहचान उन्हें थी
तापस दुःख का भान उन्हे था
पावस की शीतलता सुन्दर
अग्नि का संज्ञान उन्हें था -
श्याम-श्वेत के रुधिर एक
एक रब की सौगात के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
राग -द्वेष की घटा भी देखी
भूख -प्यास की व्यथा भी देखी
नेह -वैर के अध्याय बधेरे
सुख-दुःख की कथ कथा भी देखी -
कविता की भाषा अलबेली ,
मुक्तक कतआत के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
एक कंचन आभूषण बहुतेरे
एक माटी विन्यास बहुत
एक धरती आकाश के जीवक
एक दीपक प्रकाश बहुत -
एक पथ एक स्वरुप दे भेजा
हम क्या देते उस उपकार के बदले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
उदय वीर सिंह

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