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पांवो की जूती नहीं है वक्त,ले पहना और चल दोगे।
हिसाब मुक़र्रर कामिल है, आज नहीं तो कल दोगे।
बिखरी-बिखरी सांसों का सहते आघात अहसासों का,
वो निश्छल तन मन के नायक कैसे मैला आँचल दोगे।
टूटेगी हर दीवार ,परिधि ,जब लेगी अंगड़ाई तन्मयता,
पर्वत ,खायीं निर्मित कर ,कैसे पथ समतल दोगे।
काला अतीत आज भी धुंधला मानस में बौनापन है
आडंबर का दर्शन लेकर, तुम कैसे कल उज्वल दोगे।
उदय वीर सिंह।
5 टिप्पणियां:
वाह
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा बुधवार (11-08-2021 ) को 'जलवायु परिवर्तन की चिंताजनक ख़बर' (चर्चा अंक 4143) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुन्दर, सबको ही तो हिसाब देना है।
Vah
वाह!बहुत सुंदर सर।
सादर
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