मुक़र्रर है
मुज़रिम !
अपरिहार्य है दंड ,
हो सके तो मौत ,यातना पूर्ण मौत !
अक्षम्य अपराध है उसका ,
धृष्ट !
रोटी माँगा ,कपड़ा माँगा ,
यहाँ तक की ,
मकान भी !
पक्षपात रहित न्याय ,शिक्षा ,
समानता ,अवसर ,
उठाने लगा मानवता की आवाज
झाड़ना चाहता है धूल तन की ,
कम करना चाहता है बोझ ,
असहनीय दर्द का ,
जो ढो रहा है......
कोई सबूत नहीं है ,
उसकी बे -गुनाही का,
मुंसिफ बा-ख्याल है ,
मुज़रिम
बढ़ते
गए .......
उदय वीर सिंह
22 -04 -2012
13 टिप्पणियां:
बढ़िया रचना!
पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएँ!
!रोटी माँगा ,कपड़ा माँगा ,यहाँ तक की ,मकान भी !पक्षपात रहित न्याय ,शिक्षा ,समानता ,अवसर ,उठाने लगा मानवता की आवाज झाड़ना चाहता है धूल तन की ,कम करना चाहता है बोझ ,
भाव पुर्ण एक बहुत अच्छी रचना....
जीवन जीने का अधिकार न मिले, बड़ा अन्याय है।
चित्र मार्मिक खींच गया कवि मांगों पर अब मौत मिले |
नीति नियत का नया नियंता, भिखमंगो से बड़े गिले |
मांगे मांगे मांग रहा है, मांगों का लो अंत किया-
दर्द ख़तम सब स्वांग ख़तम, जा रे ले जा मौत दिया ||
बहुत सुन्दर वाह!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
अधिकार की मांग करने वाले ही आज मुज़रिम ठहरा दिए जते हैं। न्याय फिर कहां मिले?
वाह..........
बहुत बढ़िया......
बहुत गहन रचना.
सादर.
मार्मिक तथ्यों को उजागर करती सार्थक रचना!
अलग अंदाज।
जीवन के सारे आधार मांगे .... मुजरिम तो करार होना ही था ! माँगना अपराध है, छिनना जन्मसिद्ध अधिकार
सर्व सामान्य की पीड़ा को सार्थक स्वर प्रदान किया गया जिसमे व्यग्य और कसक की मजबूरी संवेदना को निखर तक अन्तः की उस गुफा को झकझोरता है जहां से दया की नहीं प्रहार और उखड फेंकने का बल और हौसला मिलाता है. इस हौसले के सामने अन्याय ठहर कहाँ पायेगा? क्या न्यायकर्ता के हाथ इतने कजोर हो गए की उचित-अनुचित का विचार भी अप्रासंगिक हो गया? बेहद मार्मिक और क्रूर अव्यवस्था की ओर ऊँगली उठती उद्देश्य में सफल रचना..नमस्कार जी...सतश्री अकाल..जी ..
katu satya...
सार्थक प्रश्न उठाती बहुत सुन्दर रचना...
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