रविवार, 29 सितंबर 2013

विषाक्त .

 -विषाक्त -
***
हैरानगी है, 
उसका हर लब्ज  था 
इंसानियत के खिलाफ। 
उसके कदम 
जमीं पर नहीं,
लाशों पर थे। 
हाथों में  कलम नहीं 
पिस्तौल थी ,
आँखों में प्यार नहीं 
नफ़रत थी 
बेसुमार। 
वो कल भी जिन्दा था 
आज भी है। 
आखिर !
क्यों है  ?
उसके संसकारों से 
इस ज़माने का
सरोकार।
  

                    उदय वीर सिंह 

बुधवार, 25 सितंबर 2013

जिसको अपना कहा -


जीवन   को  किसी ने मधुर 

किसी    ने     निष्ठुर    कहा -
सलिल   किसी   ने   ज्वाल  
फूल  किसी  ने पत्थर कहा-
-
सागर   किसी   ने  सरिता 
किश्ती किसी ने लहर कहा -
उपवन   किसी  ने  कानन 
गाँव  किसी  ने  शहर कहा-
-
मृत्यु  जीवन   का  गंतव्य    
भंगुर किसी ने  नश्वर कहा -
किसी ने मद किसी ने मधु 
अमृत किसी ने जहर कहा -
-
आत्मा  की    नीड़   किसी ने 
कर्मों   का     दर्पण       कहा  -
प्रतीक्षा   किसी    ने    त्याग  
किसी ने आहुति,अर्पण  कहा  -


देखने का दृष्टिकोण अपना है 
जीवन  तो  अंततः जीवन है 
फ़ानी है छोड़ जाता है आखिर  
जिसको सबने  अपना कहा -


                           उदय वीर सिंह . 

रविवार, 22 सितंबर 2013

सिया तो करो -

गुजर  जायेगी  जींद , जिया  तो  करो
थोड़ी - थोड़ी  प्रीत- मद पिया तो  करो-
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पीर की व्यथाओं में प्रीत मूक जाये ना
धागे  हैं   नेह    के  कहीं  टूट जाये ना -
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फटा  तेरा आँचल देख ,सिया तो करो -
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पढोगे ह्रदय  से मीत प्रीत की रुबाईयाँ
आँचल  भरेगा  इतनी पाओगे खुशियाँ-
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पाओगे   इतनी   प्रीत  दिया  तो  करो -
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बिखर  जाएगी  टूट  सदमों में जिंदगी
जब  भी काम आएगी आएगी वन्दगी -
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प्रेम की दवा को नियमित लिया तो करो -

**
                                    - उदय वीर सिंह .








बुधवार, 18 सितंबर 2013

..तो चाँद मांगता था


मैं  जब  भी   रूठता था
तो   चाँद    मांगता  था
थाली   में  भर के पानी
अम्मा   मुझे   दिखाती -

अमावस  की रात आती
मुश्किल  की बात होती
वो मामा  के घर गया है
आम्मा   मुझे    बताती -

पूनम    की    रात   का
शिखर युवराज चन्द्रमा
जीता  है  रण ,अंधेर से
किस्से   मुझे    सुनाती-

बादल कभी फुसला कर
उसे    परदेश    ले   गए
लग  गए  कई दाग वहां  
अम्मा   मुझे    दिखाती -

गांवों  में  उसके अक्सर
बाढ़     बहुत        आती
डूबने  से    उबरने     की
गाथा    मुझे      सुनाती-

घनी  शर्दियों में अक्सर 
बादलों   में   छिप  गया 
तारों की व्यग्रता उसकी
अठखेलियाँ        बढाती-

दूध  और  भात  का  उसे 
मधु   व्यंजन  पसंद  था     
इसी    बहाने       अम्मा 
अन्नप्रासन मुझे कराती-
  
              - उदय वीर सिंह 


शनिवार, 14 सितंबर 2013

और भी बहुत कुछ....

आज    का  समाचार
संपादकीय  सुविचार
और  भी  बहुत  कुछ
पढ़ा  लिया  तो   ठीक ,
न पढ़ा  तो अच्छा  है -

गुरु   ने    शिष्या  से
बाप  ने   बिटिया से
सहोदर    ने  अनुजा
संत   ने   श्रद्धालु  से-

तोड़ दी मर्यादा आचार -

बाबा   की     ठगहारी
शिक्षक शुद्ध व्यापारी
कामी   बना    मुरारी
दानी    बना  भिखारी-

खून से रंगा अखबार -

अभिनेत्री     को    गर्भ
अभनेता     को     शर्द
नेता   को    हुआ   दर्द
नामर्द   बना    हमदर्द-

मुखवाक  छपा चमत्कार -

कुत्ते    की    गुमशुदगी
स्वर्ग     की    सीढियाँ
रावन    का    रनिवास
भूतों     की    ड्योढ़ीयां -

का वर्णन , दर्शन साभार -

चपरासी  धन    लखपती
बाबू   मिला   करोडपति
अधिकारी का अकूत वैभव
लोक -सेवक   अरबपति -

न्यायमूर्ति का काला बाजार-

हरिया और  पूत  मरे भूखे 
गोदामों   में   सडा    अन्न 
आत्महत्या   करे   कृषक
मजदूर रोये व्याधि विपन्न-

सुरा सुंदरी से सज्जित डांस बार -


                          [मेरी एक कविता  का अंश.…. ]

                                         -उदय वीर सिंह  











बुधवार, 11 सितंबर 2013

अल्हड़पन -

आ खेलें !
बचपन-बचपन
ना हो  पटोले  स्वर्ण  जडित
न   हो रेशम  की  सेज भले-
आ छू लें नभ पहन  के  बोरे,
कितना अक्षत है अल्हड़पन -

धूल  - धूसरित  तन   मैला
मन उज्वल हिमगिरी जैसा
राग  -  द्वेष    से   दूर   बहुत
ह्रदय संकलित  है  सुंदरवन -

पुष्प सुगंध कली किसलय
लता- लिपटी झूलों से कहाँ
पग नेह लगे कंटक पथ सों
पुलक  उठता   है   अंतर्मन-

निश्छल मन के विह्वल पल 
आनंद   भरे ,    विद्वेष     दूर 
वात्शल्य  परोसे  हँसे अधर   
ऊँची   छलांग  मधुर जीवन  -

क्या  जाने  छल  छद्म, प्रपंच 
असत्य  प्रमाद  षड्यंत्र -हीन 
अपमान मान से  क्या  लेना 
पीया मद-प्रीतशैशव अनन्य- 

मदमाती   मिटटी   की  गोंद 
वसन-हीन तन  कांति   भरा
स्वर्ण  आभूषण  फीके लगते 
नैशर्गिक  रूप  सजा अनुपम -

                          -उदय वीर सिंह 

रविवार, 8 सितंबर 2013

कितने मुक्तसर होते हैं-

पथरायी आँखों में नूर नहीं रहा भले 
दिल में खूबसूरत नजर रखते हैं -

बरसाओ धूप के अंगारे चाहे कितने 

अपनी बस्तियों में शजर रखते हैं -

वीरान बेरौनक बदसूरत दिखता तन 

सीने में बेमिसाल शहर रखते हैं -

आफताबो ,माहताब पर अब यकीं न रहा 

माचिस की तीलियों में सहर रखते हैं -

फूलों में छुपा के नश्तर रखने वालों 

हम कागजी सही फूल मोहब्बत के रखते हैं -

कहा था टूटने से पहले हसीं  ख्वाब 

सुकून के दो पल  ने कितने मुक्तसर होते हैं-

 आसरा टूटता है छोड़ते हैं जब हाथ अपने

 गैरों के शहर में भी हमसफ़र मिलते हैं -  


                                     -उदय वीर सिंह 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

साया

उनको मालूम है हुश्न तेरी मासूमियत 
रहो नकाब में चाहे ,
परछाईयाँ साथ चलती हैं -

जमाल से परछाईयों का वास्ता न कोई 
उनकी फितरत है निभाने की 
चाहो दूर होना वो साथ होती हैं -

न पूछती हैं तेरा मजहब फिरका,
वास्ता न कोई जमातो इल्म से ,
यक़ीनन पैरोकार तेरे वजूद की तेरा ऐतबार करती हैं -
                                                     
                                         -उदय वीर सिंह 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

तेरा वंदन ...

सदैव की भांति आज भी गुरु शिक्षकों का हृदय से वंदन -

स्पंदन    गुरु      जीवन   के 
शत-  शत   बार  तेरा वंदन ...
आलोक  तिमिर में संजीवन 
अभिनन्दन   है अभिनन्दन

टूटे  कारा , अज्ञान  दर्प  की 
प्रज्ञा   बसती  है  मानस  में 
युग्म   स्नेह   के   बनते  हैं,
खिलते प्रसून वन-कानन में-

अभ्नव शिल्प के   अग्रदूत
मंगलमय   तुमसे   जीवन -

संवेदन    आचार      निहित 
विहित  होती  गरिमा तुमसे 
संस्कार संस्कृति पथ शुचिता 
मधु   सरिता  बहती  तुमसे -

आकार नियंत्रण सृजन सौम्य  
बस   जाता   बंजर    निर्जन -

नील  गगन, बसुधा  तल  में
चक्षु   तेरे    प्रहरी    सम   हैं 
देश , दिशा, कालों   के  ब्रती 
निर्देश अशेष नित निर्मल हैं -

जग   सोये   तू   ,जाग्रत  है
युग  पावन   सद्द   अंतर्मन -

                           उदय वीर सिंह    

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

थोड़ी धरती ,आसमानतो मिले-


मुसाफिर गुमशुदा हूँ  मुझको  नाम  तो मिले- 
मेरे हिस्से की थोड़ी धरती ,आसमानतो मिले-

खोयी  हैं अपनी  रातें
ख्वाबों  को  खो दिया -
 देकर गुलाब  सबको
काँटों  को    ले  लिया-

मंजिल मेरी अधूरी ,अंजाम को मिले-

क्या   थे  गुनाह  मेरे
बे- सलीब  हो    गया
जो रकीब था हमारा
वो   हबीब  हो   गया-

फरियाद मुन्तजिर है भगवान तो मिले -

मुट्ठी भर धुप छाँव है
वो     भी    उधार   की
माँगा  सुबह   से  मैंने
शामें      करार      की -
खिलना बिखरना चाहे वो मुकाम तो मिले-

एक बार मुड़  के  देखो
बंदिस       हजार     हैं  
तस्दीक  जो   मेरी  हो  
सहरा       बहार      हैं  -
इंतजार में  हम बैठे , पैगाम  तो   मिले -


                                  -  उदय  वीर सिंह।