शनिवार, 28 जुलाई 2018

तेरी बात मेरी में


सपने तुम नींद में मैं खुली आँखों से देखता हूँ
कितना अंतर है तेरी रात और मेरी रात में -
शराफत का वजन कम पिछली कतार में है
कितना अंतर है तेरी बात और मेरी बात में -
कहने को गगन एक जमीन की निजामत में हैं
कितना अंतर है तेरी जमात और मेरी जमातमें-
बारूदों की गंध इत्र को धता बता रही
कितना अंतर है तेरे ख्यालात और मेरे ख्यालात में -
उदय वीर सिंह

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

फिर भी जीवन में प्यार बहुत हैं -


रार बहुत तकरार बहुत हैं
फिर भी जीवन में प्यार बहुत है -
खुशियों का एक नीड़ बना
कहने को घर-बार बहुत है-
कितना सूना छत छाजन बिन
जीवन में दीवार बहुत हैं -
प्यार की पाती दिल ही बांचे
छपने को अखबार बहुत हैं -
औजारों की बात निराली
वैसे तो हथियार बहुत हैं -
मिल जाए जीवन को गौरव
कहने को अधिकार बहुत हैं -
सच्चा सौदा नानक करते
करने को व्यापार बहुत हैं
एक दाता है देने वाला
कहने को दरबार बहुत हैं -
उदय वीर सिंह


रविवार, 15 जुलाई 2018

क्या रह जाएगा देश...

क्या रह जाएगा ये देश 
हिन्दू मुसलमान होकर 
दरख़्त परिंदे भी रह जाएँगे 
क्या धर्म की पहचान होकर -
चूल्हे की आग भी बखरी 
तीज त्यौहार कुफ्र हो जायेंगे 
किताबें दुश्मनी का चश्म 
या रहेंगी नफरती मकान होकर -
भूल गए हैं मजहब अपना 
ये मजहबी लम्बरदार 
शायद इनको पसंद नहीं 
रहना एक इंसान होकर -
क्या एक इश्वर काफी नहीं 
सृजन और संहार के लिए 
क्यों ब्रह्माण्ड हथियाना चाहे 
आखिर एक मेहमान होकर -
दर्द का कोई धर्म है तो बता 
बता है कोई प्रेम की जाति 
नफ़रत का कोई रंग नहीं 
क्यों जीना बदगुमान होकर -
कभी परिंदों को तरुवर ने 
आश्रय से इनकार किया 
या फूलों ने धर्म पूछकर 
इत्रों का व्यापार किया -
प्राण वायु क्या धर्म पूछ कर 
शहर गाँव घर बहती है
पंथ पूछ कर निर्मल नदियाँ 
तृप्त जीवन को करती हैं -
प्रीत अमन के बाग़ संवारें 
कालजयी बागवान होकर -
उदय वीर सिंह



गुरुवार, 12 जुलाई 2018

सामाँन नहीं बन पाया हूँ


इंसानों की बस्ती में रह
इंसान नहीं बन पाया हूँ
बिकने खातीर मोल हाट
सामान नहीं बन पाया हूँ
जीवन की खुशियों का
पनघट पीकर मरुधर सोया
जीवन को जीवन दे पाँऊ
नखलिस्तान नहीं बन पाया हूँ -
सुखी आँखों से ख्वाब गए
आरत मन अकुलाता है
टूटे दिल की पीर बहुत
अरमान नहीं बन पाया हूँ -
उदय् वीर सिंह





रविवार, 1 जुलाई 2018

खोना जानता है ...


साधनों की सेज सोना चाहता है
वेदना के नाम रोना जानता है
धुप की चादर मिली क्या
कुंद मानस हो गया
क्षितिज पर बृक्ष का संहार
नभ में छाँव बोना चाहता है -
तमस में दीप का उपक्रम नहीं
खोजता है पथ सुघर
परायी कंध पर रख बोझ अपना
बोझ ढोना चाहता है -
बेचकर गंतव्य पथ
पग महावर साज ली
क्रंदन कृपा की ओट ले
गंतव्य पाना चाहता है -
उदय वीर सिंह