सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

विकसित -घर

विकसित-घर की परिकल्पना ,    
या जुआ -घर
रंग-मंच मानिंद 
आरम्भ है ,
फरमान ,अहसान ,पीड़ा ,अपमान ,
सम्मान ,कुंठा व्यथा ,
अभिमान का घर  /
अभिजात्य होने का दंभ,
आदर्शों से कहीं दूर ,
छल,छद्म,घात-प्रतिघात ,
शिष्टता ,सभ्यता की  तिलांजलि,
उपहास ,प्रहसन ,व्यंग का प्रमाद 
अभिलाषा प्रतिकार का घर   .../
परायों में अपना
अपनों में पराये का दंश
उन्माद भौड़ापन ,
असहिष्णुता  का नंगा -नाच
अंतरंगता की नुमायिस
का घर  /
सन्देश दे रहा है .....
हम चाँद पर जाने वाले हैं ,
भारहीनता की स्थिति को
संयोजित करना है ,
शायद संस्कृति को
 परिष्कृत कर रहा है ...
इसीलिए ,बास का घर ,
ग्रेविटी  !
 कम कर रहा है ...

                   उदय वीर सिंह .
                     ३१/१०/२०११

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

राग- हिंदुस्तान

 [भार्या ने कहा ,जा रहे हो ,तो कुछ आवश्यक सामान हैं ,हो सके तो लेते आना .......]
***
टूटे   ख्वाब   जोड़   देने  का  सामान  लेते  आना ,
मेरे आँगन में बरसे फूल  वो आसमान लेते आना - 


          करुणा   का   संवेग , दया   की 
          धारा का   कलरव  छम - छम ,
          क्षमा प्रेम  की ,मलय   निरंतर 
          न्याय ,नम्रता ,लहराए परचम .


नाप सकें गहराई नभ  की ,प्रतिमान लेते आना -


          कंठ कोकिला  बसती   जाये ,
          उज्वल   प्रभा का सम्मलेन ,
          नव -प्रभात खुशियों की वेला ,
          प्रज्ञा , विवेक  का  हो  मंचन 


समवेत स्वरों का वाहक हो ,वह ज्ञान लेते आना -


          तम   जाये   गह्वर   की    ओर,
          निलय रश्मियों से जग-मग हो ,
          धरा    हमारी     कनक    फले ,
          प्रीत  निराली  हर पग- पग  हो ,

मानव  -मात्र का अनुशीलन ,पहचान लेते आना - 


          हिन्दू , मुस्लिम, शिख   ईसाई ,
          पथ -  प्रकाश   बनके   चिराग ,
          अप्रतिम सौन्दर्य के नक्षत्र बने ,
          दिग-   दिगंत  हो   बाग  - बाग  .


सुन सकेंगे प्यार से ,राग- हिंदुस्तान लेते आना -


                                      उदय वीर सिंह .

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

बे-पनाह


         
हम    दीवारों   में    हैं  ,तुम   कतारों    में ,
बस्ती गुनाहगारों की ,महफूज  बहारों  में -


जब     डरने   लगे  हैं कलम  के   सिपाही ,
खामोश      है      जिंदगी,      इशारों     में  -


अत्याचार का नशा  परवान है ,इस  कदर ,
कट     रहा    है   इन्सान,     बाज़ारों    में -


बिकते थे  इन्सान, वहसियों  के   राज में,
लौट आया है इतिहास,अबके ताजदारों में -


ये  देश  मेरा   भी  है , कहने   की   हसरत ,
जुबाँ   कैद    है ,  होठों    की     दरारों    में  -


बहना ही अच्छा है उदय,दरिया जो शीतल है ,
वरना , आग  ही आग फैली है, किनारों  में -


शर्मिंदा हैं ,न दे पाए तुम्हें सपनों का वतन ,
फर्क इतना है ,हम बाहर हैं ,तुम मजारों में -


                                        उदय वीर सिंह .
                                          २७/१०/2011

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

जद्दोजहद

 [मित्रों ,यहाँ  अन्ना  से तात्पर्य  -देश-प्रेमी ,मानव -प्रेमी सदाचारी से है ,न की  किसी व्यक्ति से , दूसरा पक्ष से अर्थ  -  पापाचरियों,देश-द्रोहियों ,भ्रष्टाचारियों  से है ,न की किसी ,व्यक्ति -विशेष ,या सत्ता- रूढ़,या पार्टी से है] 


***
रुखसत   नहीं हैं अन्ना ,
न ही उनके विरोधी 
प्रतीक्षा में हैं दोनों ,
अपनी बारी का ,
अपना  पलड़ा भारी होने का  /
एक  के  पास -
आत्मबल ,सद्ज्ञान ,सदाचार ,प्रेम ,
सच कहने का साहस ....
तो दुसरे के पास ...
छल -छद्म ,दुस्साहस ,प्रवंचन ,
अनैतिकता का प्रबल भार..  /
क्रंदन है, व्यथा ,विपन्नता ,त्रासदी का कहीं ,
कहीं उल्लास ,मद  ,दर्प है 
मुखर  /
अर्जित किया गया ,
अकूत ऐश्वर्य ,अट्टालिका 
मिटा कर कुटिया दीन की ,मजबूर की ,
भरा गया ,स्विश-बैंक का अकाउंट  
चूस  कर  चूस खून ,
दबा  कर गला ,
बेच कर इन्शानियत का कफ़न ,
मान ,सम्मान ,स्वप्न   ,
बनाकर बंधक ,
अपनी आत्मा को ......./
झुकेगा कौन ?
न मालूम ,
अन्ना या
बे- अन्ना !

                  उदय वीर सिंह 

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

देश -दिवाली

कल थी होली, आज दिवाली ,
कल    की    बात  सवाली  है -
फीके   रंग ,  बुझे  से    दिये ,
रात    अमावस     वाली    है -
*
बोये  दीप,   उगेगा     सूरज ,
चहुँ  ओर प्रकाश छा जायेगा -
रोशन   होगा   हर    आँगन ,
हर पथ, प्रकाश  पा  जायेगा -
*
आस प्रतीक्षित  ढूंढ़  रही  है  ,
रात   काली   की   काली  है -   
*
दांव    लगाये      हार     गए ,
जो   थी   वो    भी   दूर  गयी -
धोया ,पोंछा, घर,  हर, कोना ,
पर   मेरा  घर  वो  भूल गयी -
*
कब आयी  दीनों  के  आसन ,
उल्लू  , संग  रहने   वाली  है -
*
मिटटी   ,तेल  , रुई ,    रोली ,
जा छिपे  कहीं  अस्ताचल में -
सामर्थ्य   कहाँ  की दीप जले
जलते    हैं   तो    ख्वाबों   में -
*
जलता  ह्रदय, बुझते हैं दीये,
कैसे      रीत     निराली    है -
*
अपना आँगन ,देश ,दिवाली ,
हर  द्वार   सजे   रोशन होता -
वाह !  दिवाली   कंठ,    कंठ ,
न  शोक   कहीं  क्रंदन  होता -
*
कर दे निरस्त वीसा  अपना ,
अंक  ,स्वदेस   का  खाली  है -
*
                        उदय वीर सिंह .
                         २३/१०/२०११







शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

झर-निर्झर

निर्झर क्या भिगोया तन मेरा ,
मन    भीगे    तो    याद   करूँ ..

भरती  रंग  तूलिका    कितने ,
अश्क    रंगे    तो   याद   करूँ ..


दृग  तो  हैं  ,दृष्टि  विस्थापित ,
स्वप्न    सजे   तो  याद   करूँ ..

लिख   सके   अंतर  की  पीड़ा ,
वह कलम मिले तो याद  करूँ..

धरती गगन मिले से  दिखते ,
मिल   जाये    तो  याद   करूँ ...


वर्तमान   तो    सबने     देखा ,
कल     देखे    तो   याद    करूँ ..

                         उदय वीर सिंह 



   

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

आँगन उगे बबूल

आँगन   में  उगे  बबूल,  कह सुन्दर सुन्दर 
चढ़  खिलने लगे हैं शूल ,वन सुन्दर सुन्दर --  
            
         भरी    हुयी   वादी   फूलों   से ,
         रिक्त    हुयी,   अब   कांटें    हैं
         कर   सकते  निर्यात   फसल ,
         इतनी   बबूल   की    काटे   हैं ,

धान , कणक घाटे की खेती करते हैं कुबूल ,
                 जन,  सुन्दर  सुन्दर ....


          बिंधते   फूल , शूल  संग    ऐसे ,
          नख  से  शिख  तक   जार जार,
          स्रावित रुधिर,तन का हर कोना ,
          हिले    की    छाती    आर - पार ,


सृजन,शौर्य,सौंदर्य,विसारा,यह स्वप्न नहीं स्थूल
                    मन , सुन्दर सुन्दर .../

           आयातित  कांटे  क्या  कम थे ,
           कंटक    क्रांति   को   रच  बैठे ,
           बोओगे  कांटे , खाओगे    क्या ,
           अंक   विनास     के    जा   बैठे ,


तीज  त्यौहार , हार में कांटे ,,गायब  हैं तो फूल,
                    लिख , सुन्दर सुन्दर ....


            इस   अखंड  देश  में  काँटों   को ,
            सींचो     मत  ,  कंटक      भ्राता,
            कई   फाड़   के  जख्म  गहरे  हैं ,
            जिन्दा हैं, शोक गीत  क्यों गाता ,


जयचंद की भाषा न भूले,तुम्हें  ये देश जायेगा भूल ,
                     हे  सुन्दर  सुन्दर ......


कंटक   आभूषण   न  होते  ,  न   होते   हैं    फूल ,
                    अथ ! सुन्दर सुन्दर .....


                                             उदय  वीर  सिंह
            

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

जग -जीते !

{जगजीत सिंह शिर्फ़ एक नाम नहीं ,एक गुब्बार था , एक आंधी ,एक सरोकार था ,हर आमों -खास का , जूनून की हद तक ह्रदय  को उद्वेलित करने वाला हमारे बीच नहीं ,अब उनकी यादें,  स्वर, दरियादिली , जज्ज्बात,ही साथ हैं / नमन करते हैं ,उनको .....न जाने कौन से देश जो .........चले गए  ....  }



स्वर के ,सफ़र के ,शिखर के  पुरोधा ,
चले   छोड़ आँगन ,  तुम्हें   ढूढ़ते   हैं -

चले  देश  किसके , कहाँ  पर बसा है  ?
कभी  पूछते  तुम ,अब हम  पूछते हैं -

सबब  जिंदगी  के , सुकून  देने  वाले ,
क्या  तेरी  जिद  थी ,  खता  पूछते हैं -

हकीकत थेतुम ख्वाब,क्यों बन गए अब ,
रहने    की    दिल   में ,सजा   पूछते  हैं -


तेरे  स्वर  की  गंगा बहेगी  युगों तक ,
रहने  वाले  दिल में ,फ़ना  कब हुए हैं -


सूना      धरातल   ,   सुनी      निगाहें ,
कदमों   के   तेरे ,   निशान   देखते  हैं -


                                    उदय वीर सिंह
                                     १२/१०/२०११


रविवार, 9 अक्तूबर 2011

परिधि -प्राचीर

स्वीकार समझ कर मौन हुए ,
   प्रतिकार  समझ   जी लेते  हैं ,
     मिल जाये  अमृत ,मांगे  जो ,
        तो  गरल  भी  हम पी लेते  हैं  .

मुस्कान प्रतिष्ठित  होठों  पर ,
    गरिमा  की  लाली  गालों पर ,
     आँखों में गर्व की ज्योति  जले ,
       साहस   अदम्य  हो  भालों  पर ,

हृदय न्याय को बंच सके ,
  दर्द  भी   हम  सह  लेते हैं --

चढ़कर छाती पर नृत्य न हो ,
   देते   हैं   ठुमके  घाव  गहन ,
     अट्टहास   गूंजे     दर्प    बने   ,
        तब  शांति   की  आस  न बन .

हो  पथ- प्रशस्त ,प्रश्न जीवन  का    ,
     हम   मृत्य , वरण    कर  लेते  हैं  --

शक्ति   भुजाओं  में  इतनी ,
   स्कंध   नहीं   मांगे पर का ,
     नीर, क्षीर,  को   पीने   वाले ,
       रक्त  भी   पी   लेते  अरि   का ,

जो  काँटों    पर  सो  सकते हैं
   वो   सेज  पर  भी  सो  लेते  हैं --

सौंदर्य  हमारा  शौर्य   , क्षमा ,
    हर  रंग  दिखे इन  हाथों  में ,
      नंगे ,    भूखे    हैं    कर्मवीर ,
        कब  तक   छलोगे   बातों में ,

जो  दे  सकता है उच्च  -शिखर ,
    वो    गह्वर     भी    दे    देते    हैं --

जिओ ,  जीने   दो , जन  को ,                      
    छल अन्याय ,भ्रष्टता  छोड़ चलो 
      मत भेद करो ,भारतवासी में भ्राता,
        हर "वाद " से   मुख   को   मोड़ चलो   ,

ये दिल जज्ज्बाती है ,इतिहास के पन्नो से ,
       भगत सिंह ,उधम  की   राह, पकड़ लेते हैं --

                                          उदय वीर सिंह .
                                           ०९/१०/२०११ 










गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

दशहरा

दश- हारा 
मनाते रहे विजयोत्सव ,
जलाते रहे  पुतले ,,
न जल सका रावण,
न जल सकी  उसकी  स्वर्ण  लंका ,
उत्तरोत्तर प्रगति की ओर,
 वन में रही ,
अब महलों में भी, नहीं
 सुरक्षित सीता !
भाई भी , लक्षमण 
कहाँ  रहा ?
भरत , ताक  में ,
कहीं लौट न आयें  राम /
उर्मिला ,को भी प्रतीक्षा नहीं ,
कैकेयी ,सुमित्रा  माँ  हैं ,
ममता नहीं रही ,
अयोध्या ,हृदयस्थल थी द्वीप की ,
अब पटरानी है ,
सियासत की , विवाद की ,
पादुका प्रतीक थी ,
अनुग्रह की, स्नेह की ,त्याग की ,
अब खड़ाऊँ  है ,
पद -दलन की ,ताडन की ...../
मेरा राम !
हताक्षर,प्रेम ,विनय ,साहस,मर्यादा ,
व विजय का ,
लेनेवाला सुधि ,स्वजनों का ,सज्जनों का ,
कहाँ   है  ?
समीक्षा  से  भ्रम  है,
हम किसे जला रहे हैं -
राम को  !
या 
रावन को ?
त्याज्य को या
आराध्य को ?

                         उदय वीर सिंह .
                           ०६/10/२०११ 





मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

आपकी नजर

इस ज़माने  ने  दी  हमको रुसवाईयाँ ,
पर ज़माने  को  हम, प्यार करते रहे          **

छोड़  आये थे शाहिल  बहुत  दूर हम ,
कश्तियाँ उनको दे, हम  भंवर  में रहे          **

हमने  चाहा   ख़ुशी , पाई    दुश्वारियां ,
राह शोलों  की हम, फीर भी चलते रहे         **

हम से डरता रहा हर ज़माने  का गम ,
हम तो खुशियों की ,आहट से डरते रहें        **


राह -ए-जख्मों से हमको नहीं है गिला ,
उनके   दर  से    हमेशा   गुजरते    रहे        **


पत्थरों   से  मुझे  इश्क  हो  ही    गया ,
उदय   हर   कदम   साथ   मिलते   रहे        **


                                           उदय वीर सिंह



रविवार, 2 अक्तूबर 2011

प्रियोदित

हम  तुम्हारे  नहीं , तुम   हमारे   नहीं ,
आग ,पतझड़   में  खिलती, बहारें नहीं ,--
*
तेरा सूरज सा  बनने की  शुभकामना ,
ऋतू   ऐसी   नहीं   की ,  अन्हारे  नहीं --
*
पथ गमन  कर रहा ,बन के परछाईयाँ ,
दूर  मंजिल  भले , फिर भी   हारे  नहीं ---   
*
छीन सकता है कोई ,चमन    वो  कली ,
कौन   कहता ,गगन  में   सितारे   नहीं ---
*
डूब   जाने  का  डर , मेरे  दिल  में  नहीं ,
ऐसी   दरिया   नहीं,   जो  किनारे   नहीं ---
*
पत्थरों   की  तरह   टूट  बिखरेंगे क्यों ,
ऐसी   दुनियां  नहीं   की  , सहारे   नहीं ---


                                         *     उदय वीर सिंह .