शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

रहो किसी का होकर


जींद हँसती है, रहो किसी का होकर

खुशी मिलती है किसीको खुशी देकर
देख लेना कभी ,किसी का गम लेकर -

पैरहन क्या है , न देख निगाहें बदलो 
बीज जमता है ,जमीं में दफन होकर -




माना मलमली दुपट्टों की, उड़ान ऊंची 

जो निभाना तो,किसी का कफन होकर -

कांटे भी पनाह में हैं,गुल भी पनाह में
कितना सबाब है जीना गुलशन होकर-

क्यों गर्दिशी का आलम अलविदा कहो
बनो चिराग तो उलफत से रौशन होकर -

उदय वीर 

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

अब आईना तलाशता है


दिल गैरोंके बीच भी  कोई अपना तलाशता है 
बीच आवारा बादलों के चाँद रस्ता तलाशता है-

हो रही दर्द की बारिस सुबह से वो खुले न खुले 
न सूखे पर अभी परिंदा फिर भींगना चाहता है -

गैरतमंद  होठों तक ,चल के जाम आया उदय  

बना हलक के दो घूंट अब आईना तलाशता है-

कितना कमजोर है बदन जज्बा ए आशिकी का 

हर दिल में जा अपना आशियाना तलाशता है -

बिकने के बाद बिछने के बाद स्वाभिमान जागा 

अब  बर्बाद  जिंदगी  का  मायिना तलाशता है -

उदय वीर सिंह 


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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

दीये नूर हैं रब के


 
चल दूर मजहबों से 
एक दीप जलाने के लिए -

अंधेरा  न   पूछता  है 
कभी घर आने के लिए - 

कौन होगा अधेरी रात
मंजिल ले जाने के लिए-

दीये नूर हैं रब के
इल्मों ईमा लाने के लिए -

ये रौशन रहे तूफानों में
हर दामन हो इसे बचाने के लिए -

ये बुलंदियों को रास्ता देगा
जरूरत है जमाने के लिए -

उदय वीर सिंह









बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

हो आँख कोई ख्वाब होते हैं


हो आँख कोई ख्वाब होते हैं
हो सवाल कोई जवाब होते हैं- 

शर्म इतनी तो कायम है के
जनाजों के भी लिबास होते हैं -

उदय क्या पढ़ोगे चेहरों को
जिनके ऊपर नकाब होते हैं-

हँसते हैं बिंदास महफिलों मे
देखा अक्सर ,घरों में रोते हैं- 

छिनने वाले सुकून औरों के
ताउम्र बेहिसाब गम ढोते हैं -

उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

हम मुस्कराना क्या जानें -


खुलकर कर हंसने वाले हैं जी  
हम मुस्कराना क्या जानें -
हम दिल लूटाने वाले हैं जी 
दिल चुराना क्या जानें -

देखी  बस्ती दिल वालों की 
बिक रहे मनमाने दाम, 
पत्थर ले, कर, चलने वाले 
फूलों से निभाना क्या जानें -

फेंक दिया दिल फूँक दिया जी, 
ये रश्म अजीही कायम है 
दिलदार दिलों पर मिटते हैं 
दिल को मिटाना क्या जानें -

चाहा जब आबाद किया 
जब चाहा बर्बाद किया ,
वो पत्थरदिल सौदागर हैं जी 
दिल को लगाना क्या जानें-

- उदय वीर सिंह 



मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

लैम्प पोस्ट-


अंधेरी गली का लैम्प पोस्ट 
दिन में 
जलता, बुझता है 
रात के अँधेरों में गुम हो जाता है 
गली का चौकीदार 
ढूँढता है नहीं पाता है ।
काला शीशा चढ़ी काली गाड़िया
गुजर जाती हैं रफ्तार से ,
उनकी फ्लैश लाईट में 
चौंधिया कर देखता रह जाता है । 
न जाने कहाँ से ऊर्जा मिली 
एक रात प्रकाशित हो गया 
लैम्प पोस्ट .....
चौकीदार देख सकता था,
हर गुजरती नाजनी सी सेडानों को 
दिया हाथ आगंतुक पंजिका में दर्ज करने को 
नाम पता नंबर ....।
न रुका कोई ,
कुछ पल बाद आता दिखा जल्लाद बुलडोजर 
अब न था लैम्प पोस्ट 
न बचा चौकीदार, 
बेनामों का पता दर्ज करने को .........।

उदय वीर सिंह 

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

तुम दवा होके देखो -


मैं खुश हूँ इंसानियत की पनाह 
तुम खुदा होके देखो -

दर्द क्या होता है दिल लगाने का 
तुम जुदा होके देखो -

फितरत है महबूब की लूटने की 
तुम फिदा होके देखो -

ताबिंदा सितारे छुप नहीं सकते 
तुम गुमशुदा होके देखो -

बदलते हालात मुक्तसर, होते फासले 
गम में गमजदा होके देखो -

किसी मजलूम की चाहत क्या है 
उसकी इल्तजा होके देखो -

नासूर का दर्द कितना होता है ,
तुम दवा होके देखो - 

उदय वीर सिंह 

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

ये मेरी बेबसी है -


मेरी बेबसी पर तुम्हें रोना आए
ये मेरी बेबसी है -
मेरी हंसी पर तुम्हें रोना आए 
ये मेरी बेबसी है -
मेरी जींद पर अख़्तियार किसी और का है
ये मेरी बेबसी है -
टंगी सलीब पर जिंदगी कितनी अकेली मायूस 
ये मेरी बेबसी है -
आजाद हो यादें , मुझे आजाद नहीं करती 
ये मेरी बेबसी है 
कह न सका कभी तेरे रकीबपन को ,प्यार में 
ये मेरी बेबसी है -

-उदय वीर सिंह 


सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

दशहरा हो गया है -


राम रावण जा चुके हैं 
दशहरा हो गया है - 
दिल आबाद था वादियों में
सहरा हो गया है -
कान इंसानियत का
बहरा  हो  गया  है -
देख ले जख्म दिल का 
और गहरा हो गया है -
भर रहा था रफ्ता - रफ्ता 
तुम्हें देख हरा हो गया है-

- उदय वीर सिंह 


शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

नारी क्यों व्यसना है ....



पूजा के पंडालों मे कितनी श्रद्धा आती है
सौंदर्य रूप में नारी पुरुष तत्व को भाती है-
संसद- भवन ,घर हो ,या कोख ,राजपथ
सत्ता मानस से स्वीकृत नहीं हो पाती है-

मंचस्थ ढोंगी ,शक्ति प्रलाप तो करता है
उद्धृत करता ग्रंथ नारी सृजना कहलाती है -
बाज़ारों बारों महलों में जलसों में कितनी
अस्मिता नारी की कैसे विकृत की जाती है-

पल- भर में सम्बन्धों का हर बंध टूटता
नारी स्त्रियोचित स्व- भाव जब अपनाती है
पुरुष मंच से घोषित होती , देवी से पतिता
तन मन दोनों रौंदे जाते पीर नहीं कह पाती है -
- उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

शाख के पत्ते हो आखिर ...



उदय लिखना तो जमाने की अर्ज लिखना
रिसते हुये तमाम जख्मों का दर्द लिखना -
लाशों से गुजर गए महफिले मंजिल देखते
एक इंसान को इंसानियत का फर्ज लिखना-
तूफान भी देता है आबाद होने का हौसला
पाँव में पड़े छालों को अपना हमदर्द लिखना-
जी सकोगे ,हकीकत की जमीन पर बेखौफ
बसंत को बसंत पतझड़ को पतझड़ लिखना-
शाख  पर पत्ते हो आखिर गिरना है टूट कर
जमीन पर आना तो रंग उनका जर्द लिखना -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

इनका भारत .....


ये व्रत नहीं रखता 
ये नहीं जाता देवालय
ये नहीं करता योग
ये नहीं जानता बजाना गाल
इसे राजनीति नहीं आती
नहीं है अलंकारिक भाषा ज्ञान
कुलीनता कुल प्रमाद दोष
प्रभावहीन है आडंबर अंध विसवास से
अछूता विज्ञान के आलोक से
रोज मरता है रोज जीता है
जख्म से जख्म भरता है
रोज खुलते हैं रोज सीता है
रोटी की जुगत मे
आँसू पीता है
खींचता है जीवन की गाड़ी को जिस्म की समिधा से
इस यज्ञ में पुनः उसका उत्तराधिकारी
नियुक्त होता है
विद्वत समाज प्रलाप कर हँसता हैं
पूर्व जन्मों का फल कहता है
इसको पतित
अपने को पावन कहता है.....
इसकी कौन सी सदी होगी
कौन सी धरती कौन सा आसमान होगा ॥?
इसका भी अगर भारत है ,
कब महान होगा ?
- उदय वीर सिंह

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

हो जख्मों से खाली जगह वो बता दो


हो जख्मों से खाली जगह वो बता दो
अपनों से रूठा वतन रो रहा है -
वो फरेबों से दामन सुनो भरने वालों
वतन को सुनो कुछ वतन कह रहा है -
बंटा क्या नहीं है कुछ तो बता दो
शोला ए नफरत वतन जल रहा है -
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में रब ढूंढते हो
दिल का वासिन्दा बे घर हो रहा है -

उदय वीर सिंह