मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

पंच पूछते हैं कि कहीं कोई पंच देखा है ...


ऋतुएँ निष्प्रभावी हैं सदा बसंत देखा है 
जहाँ सत्ता की चाभी है वहीँ मकरंद देखा है 
सत्ता सिन्हासन की सरिता कुलबुलाती है 
वहीँ सत्ता सियारों का सियासी कुम्भ देखा है -

शीशमहल में स्वर्ण कलश के नीर पीते हैं
दबाये कांख में सत्ता रोते लोकतंत्र देखा है
जिन्हें चिंता बहुत है देश के लाचार जनता की
खूनी दागियों अपराधियों से अनुवंध देखा है -

आरम्भ होती है जहाँ से सर्वहारा की डगर
खड़ी दीवार मोटी सी लगा प्रतिबन्ध देखा है
भूख सिसकती वेदना उखड़ती स्वांस पूछे है
ढोंगी वंचकों के बीच कोई संत देखा है -

कृशकाय तन ,घायल मनस माँ भारती के पाँव
खिंचते हैं चीर ,मूल्य निर्वस्त्र होते चौक पर
हतभाग्य है या चिर सुन्य-काल प्रिय देश का
अब पंच पूछते हैं कि कहीं कोई पंच देखा है -

उदय वीर सिंह






शनिवार, 22 दिसंबर 2018

उबला हुआ कड़ाही में बीज नहीं ज़मने वाला ---


तेरी कल्पना की झांकी में, मैं नहीं रमने वाला
बाती,तेल बिन दीपक कभी नहीं जलने वाला
अतल ह्रदय में जाग्रत वो दीप नहीं बुझने वाला
उबला हुआ कड़ाही में बीज नहीं ज़मने वाला-

अस्ताचल प्राची तिथियां सब पृथ्वी के फेरे हैं
चक्र गति सास्वत है जब तक तेरे मेरे डेरे हैं
अंशुमान को फांस फेंको वो नहीं ढलने वाला -
पत्थर जमा हुआ है सदियों से वो नहीं ज़मने वाला

जम जाता है नीर ,शरद ऋतू की पाकर संगति
दहक उठती हैं अग्नि शिराएँ खोकर शीतल संपति
उत्कोच्च लोभ डर शंसय समीर संग जो जमा नहीं
होते घाती सब निष्फल प्रयास वो कहाँ गलने वाला -

भावनाओं के उदरस्थल में भ्रम निषेचित हो सकता
स्नेहसिक्त आँचल में असत्य कदाचित पल सकता
पा जाता है ठौर कदाचित दर्शन अधोगति ले जाने वाला
निर्मम दिशाहीन बवंडर कब पाता सहोदर रोने वाला -
उदय वीर सिंह



रविवार, 16 दिसंबर 2018

बे-रोजगार


जन्म लेना उसके बस में नहीं
एक बेरोजगार कई बार मरता है -
चिता तो जलाती है मात्र शरीर
वह पूरे जीवन काल जलता है-
आगे सपनों का बुना संसार
पीछे दायित्वों का अम्बार
सहानुभूतियों का दिव्यांग दर्शन
दरकते विस्वास का घना गुब्बार
अंतहीन सवालों का क्रम निरंतर चलता है -
आशंकाओ दुविधाओं विफलताओं का
एकल प्रवक्ता दैन्यता कुंठा अवसादों का
भुगतना होता है दंड अपराध विहीनता का
अपराधबोध जीवन की मृगमरीचिका का -
उगता है हर सुबह हर शाम ढलता है -
उदय वीर सिंह


रविवार, 2 दिसंबर 2018

दुखिया पालनहार


जब जब रोया है धरती-पुत्र
तब तब धरती रोई है
रख कर हृदय पर पत्थर निज
उनके घाव आंसू से धोई है -
उनके वेदन बंदूकों से हरने वालों
तख़्त विलास महलों में रहने वालों
रगों में खून तुम्हारे तब तक है
जबतक कायम किसान का मस्तक है -
सींच पसीने खून से अपने
अपने वेदन भुल कर सपने
आँखों में भरकर सृजन संवेदना
त्याग व्यथा जीवन के अपने
फटी विबाई तन अधनंगा
रत निरंतर कर्म में अपने
स्वांस तुहारी तबतक है
जब तक किसान की दस्तक है -
वो क्या देता है सृष्टि, जन को
तुम क्या देते हो प्रतिदान उन्हें
जो अन्न वस्त्र औषधि उपजाता
देते मौत उपेक्षा अपमान उन्हें
मिट गए कोटि सत्ता दरबारी
मत छेड़ किसान ही रक्षक है -
उदय वीर सिंह 





बुधवार, 28 नवंबर 2018

तेरे आँचल की छाँव मिली -


आपके आँचल की ओट -
आज एक सुखद अहसास हुआ की मेरी भी रचनाएँ आप सुधि जनों को व अन्य लोगों को पसंद आती हैं ,वास्तविकता है की मेरी व्यस्तता व उत्तरदायित्वों ने मुझे बंधक सा बना दिया है । मैं महसूस करता हूँ -
" आगे चाहता हूँ चलना काफिले संग ,
पीछे देखता हूँ आंसुओं को बहते हुए
कभी कहा नहीं कि तूं ठहर जा ,
पर देखता हूँ उनको ठहरते हुए
मैं चाहता हूँ आगे पकड़ना उंगलियाँ ,
पीछे देखता हूँ अपनी उंगलियाँ पकड़ते हुए " -
फिर भी सतत चलने का प्रयास /संकल्प संग लिए रत हूँ ,ऐसे कठिन डगर / सफ़र में साहित्य /गैर साहित्य प्रेमियों,का साथ संबल मिलता है ,मेरा सौभाग्य है मेरी अभिव्यक्तियों को पढ़ना आदर देना [आलोचना /समालोचना के सन्दर्भों में ] मैं कृपा -प्रसाद स्वरुप स्वीकार करता हूँ
मेरी रचनाओं को [ कविता /कहानियों लेखों ] को मेरे ब्लॉगों ' उन्नयन '
' सिफ़त ' फेसबुक-सृजन को भरपूर स्नेह व सम्मान, साहित्य प्रेमियों ,आत्मीयों ने दिया है, जिससे मैं अनजान सा था । आज सुखद आश्चर्य हुआ जान कर , ह्रदय से शुक्रगुजार हूँ उनका जिन्हों ने मेरे रचनाधर्मिता को समय व सहृदयता से उनका संज्ञान लिया । मेरी दुनियावी बाध्यताओं की सीमा अब असीमित से लगता है सिमित सी हो गयी है ।
क्षमा प्रार्थी हूँ ,किसी अनादर ,अज्ञानता के लिए जो संभव है , अगर कहीं किसी से हो गयी हो। मैं इस योग्य नहीं की आप साहित्य मनीषियों की सी ऊंचाई की कल्पना भी करूँ , अनुसरण करना चाहता हूँ ..काफी है इतना स्नेह व सरोकार ।
" वो दीप बुझे भी कैसे ..तेरे आँचल की ओट जो पायी है '
विनयवत आभार ।
उदय वीर सिंह




सोमवार, 26 नवंबर 2018

सम्मान चाहिए था जी -


रोटी कपड़ा जीवन को
मकान चाहिए था जी
शिक्षा और सुरक्षा सुख
सम्मान चाहिए था जी -
एक ही चमन के वारिस 
एक पहचान चाहिए था जी -
कैसे गोरे काले एक
इन्सान चाहिए था जी-
कश्मीर से कुमारी कन्या
एक हिन्दुस्तान चाहिए था जी -
कैसा उंच नीच भेद 
जाति वर्ग वाद कैसा ?
हम सब भारतवासी एक
जुबान चाहिए था जी -
उदय वीर सिंह


मंगलवार, 20 नवंबर 2018

कर्ण सदा दुत्कारे जाते हैं ....


किससे मांगोगे दान
कर्ण सदा दुत्कारे जाते हैं
कोख का मौन गुरु समाज के श्राप
छल से शीश उतारे जाते हैं -

अर्जुन को आरक्षण विधि मान्य
गुण शौर्य सदा किनारे जाते हैं
किसका गाओगे विजय गान
अपनों से अपने मारे जाते हैं -

छल को स्थान रणनीति कहें
बल को ईश्वर का प्रतिरूप
न्याय उदासी करे प्रतीक्षा
जब सत्य शील विसारे जाते हैं -

उदय वीर सिंह




शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

कफ़न नोच रहे हो ..

अपने विवादों में भूल गए कि
कफ़न नोच रहे हो -
लाज सिसकती हासिए पर
आवंटन की सोच रहे हो -
दीवार खड़ा करके आँगन में 
अपना ही रास्ता रोक रहे हो -
घर जला किसी का चैन से
अपनी रोटी सेंक रहे हो -
पहन कर सफ़ेद कपडे सामने
कीचड़ फेक रहे हो -
जल रही बस्ती में तेरा भी घर है
तुम तमाशा देख रहे हो -
उदय वीर सिंह

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मत मारो मन के राम...


मत मारो मन के राम को ,
रावण जिन्दा हो जाता है ,
पंछी दरख़्त तो नहीं होते
बृक्ष ,परिंदा हो जाता है -

आश टूटती है प्रेम की
अपने ही पराये होते जाते
घोर तमस में आँगन होता
मानस दरिंदा हो जाता है -

पाठशाला,क्रंदन शाला होती
नैतिकता विलुप्त हो जाती है
रोती दया करुणा किसी गह्वर
क्षमा प्रेम शर्मिंदा हो जाता है -

हाथ आशीष के ज्वाल बरसते
विश्वास आश दुर्लभ होते
घात प्रतिघात की प्रत्यासा में
गौरव गन्दा हो जाता है -

अनाचार कदाचार ,प्रश्रय पाते
व्रत संकल्प कुमार्ग में ढल जाते
ममता के हाथ पड़ते छाले
औषधि ,सौदा, मंदा हो जाता है -

उदय वीर सिंह






गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

अभी फैसलों की एक लम्बी सतर है ...


नहीं चाहते हम कलम तोड़ देना
अभी फैसलों की एक लम्बी सतर है -
अभी पाँव में न लगेगी महावर
काँटों भरी एक लम्बी डगर है -
अभी शस्त्र तरकस में वापस होंगे
अभी पापियों की देख लम्बी उमर है -
आँखों को आंसू से तर करेंगे
काफिला हौसलों का अभी मुन्तजिर है -
आशियानों के पत्थर तराशो उदय
तूफानों के आने की आई खबर है -
उदय वीर सिंह



रविवार, 14 अक्तूबर 2018

गाए हमने गीत बहुत ....


गाए हमने गीत बहुत
प्रेम कभी वेदन के
सुनने वाले भूल गए
राग सभी संवेदन के -
राह वही राही बदले
साख वही साथी बदले
धरती वही गगन भी वही
घन बदले पंछी बदले -
उत्सव की रंग हवेली में
बदले नाम आमंत्रण के -
सन्दर्भ वही संवाद वही
सुर बदले स्वर बदले
पीड़ा के वाचनहारों के
भाषा बदली अक्षर बदले -
मंदिर भी वही मूर्ति भी वही
बदले पात्र आवेदन के -
उदय वीर सिंह