रविवार, 30 अप्रैल 2017

मैं न जाना मधु मधुशाला

जब  सिर पर पगड़ी नहीं 
ऊछालोगे क्या लंबरदार
सिर ऊपर मेरे छत नहीं 
निकालोगे क्या लंबरदार-
मैं न जाना मद..मधुशाला 
संभालोगे क्या लंबरदार-
मेरी मिर्जई जेब नहीं 
खंघालोगे क्या लंबरदार -
नीर छीर के आयत को 
ढालोगे क्या लंबरदार
मर जाएगा सिंह बंधन में
क्या पालोगे लंबरदार -
उदय वीर सिंह 

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

मानविंदु समर्थ योगी

जिसने योगी को समझा है
उसने जीवन को समझा है
वेदन क्या ,आँसू क्या होता है
उसने मानस मन को समझा है -
वैराग्य समर्थ का स्पंदन है
अनबोलों का क्रंदन समझा है
वनवासी वनजीवों का मीत
अभिनंदन कर वंदन समझा है -
नारी अबला का मान विंदु
मर्यादा का मर्दन समझा है -
ज्योति नयन हंसी अधरों को
बेकस का अतिरंजन समझा है -
दम तोड़ती आशाओं का
अपेक्षाओं का सुंदरतम समझा है
जनमानस को ताबेदार समझती
तानाशाही का अन्तर्मन समझा है -
उदय वीर सिंह




गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

झुकते हैं हजारों सिर

झुकते हैं हजारों सिर
स्वागतम  के लिए
मिलते बहुत ही कम
कटाने को वतन के लिए
शोहरत न.कोई तमगा 
उनको नहीं ,लुभाता
आँचल ही माँ का काफी
उनके कफन के    लिए
ठहरे हुए हैं पाँव बुत से
बहता रहा लहू सड़कों पर बेशुमार
देने वाले कम हैं 
इंसानो चमन,के लिए 

उदय वीर सिंह 

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

क्यों रोये माटी का पूत -

आँख भरी आंचल खाली है
भरे गोदाम खाली थाली है
अन्न दाता याचक बन रोये
स्वप्न भरे हैं घर खाली है -
कर्जों से उनकी भरी किताबें
बटुआ मुद्रा से खाली है -
अंग -प्रत्यंग है कर्ज भरा .
खुशहाली से जीवन खाली है -
सजे मंदिर मसीत गिरजा गुरुद्वारे
बे-पर्दा किसान आँगन .खाली है -
शिगाफों ,से तन ,दिखता है ..
चिथड़े वसन हैं माँ बेटी के
आनंद मनाता साहूकार
देख लहलहाती अपनी खेती के -
जर जोरू जमीन का सौदा
वो करते हुए सवाली है
क्यों आत्महत्या का पथ चुनता
स्वर राजपथों से खाली है
उदय वीर सिंह

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

किसकी शाख किसके फल

किसकी शाख किसके फल लगने लगे 
केशर की क्यारियों में  जहर उगने लगे -
हर खुशी हर गम में शरीक थे कुनबे 
अब रोटी भी हिन्दू मुसलमान की कहने लगे -
जो हाथ उठते थे मोहब्बत से दुआओं के 
उस हाथ से बेमुरौअत पत्थर चलने लगे-
कश्मीर आतंक का नहीं मोहब्बत का घर था 
आज घर आतंकी दड़बों में बदलने लगे -

उदय वीर सिंह 


रविवार, 16 अप्रैल 2017

पत्थरबाजों से -

पत्थरबाजों से -
जो तेरी सलामती की निगहबानी में है
वो क्यो आज तुमसे ही परेशानी में है -
सुन बेकस खौफजदा रूहें आवाज देती है ..
हो हकीकत से दूर तूँ कितनी नादानी में है -
वतन नहीं तोड़ सकते तेरे हाथ के पत्थर
शायद तूँ किसी ख्वाब में है या कहानी में है -
ये किसी कौम या मजहब का नहीं है वतन
यहाँ फरजंद रहते हैं तूँ किसी बद्दगुमानी में है -
उदय वीर सिंह

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

खोखली जड़ों के पेड़ जिंदा नहीं रहते

तूने जिसे छूआ  नहीं अछूत समझकर 
दुनियाँ ने अपनायाउसे सपूत समझकर 
ईश्वर ने बनाया जीव बनाई तुमने जाति
मानवता ने अपनाया उसे दूत समझकर 
खोखली जड़ों के पेड़ जिंदा नहीं रहते 
परिंदे भी छोड़ जाते हैं कमजोर समझ कर -
उदय वीर सिंह 

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

बबूल को अमलतास लिखते रहे -

सदियाँ अभिशप्त ती रहीं  रहीं 
रंगमहल का इतिहास लिखते रहे 
तड़फता रहा अँधेरों में जीवन 
उजला उजला आकाश लिखते रहे -
धर्म और देश सतत बिखरता रहा 
बिखेरने वालों को खास लिखते रहे -
आंसू वेदन अन्यायी अनुशीलन था 
कामसूत्रीय परिहास लिखते रहे -
पतझर वसंत का भेद न देखा 
बबूल को अमलतास लिखते रहे -

उदय वीर सिंह 

बैसाखी के आँचल से अनमोल सदाएँ सुना रहा ...

बैसाखी के आँचल से अनमोल सदाएँ सुना रहा ... 
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अप्रतिम त्याग वलिदान संकल्प युगनिर्माण का दिवस बैसाखी -
तिथि 13 अप्रैल 1699 स्थान आनंदपुर साहिब पंजाब दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज द्वारा खालसा पंथ की स्थापना की जाती है । सिक्ख संगत समस्त भारतीय प्रायदीप से अपनी अविस्मरणीय सहभागिता  प्रस्तुत करती है। युग इतिहास में तन मन धन अर्पण की पराकाष्ठा बनती है बैसाखी । आर्थिक सामाजिक भौगोलिक ही नहीं आध्यात्मिक स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन होता है जिसकी कल्पना मुगल ही नहीं वैदिक कालखंडों में संभव नहीं थी ।स्मरणीय हो  उस समय- काल में दूर संचार, आवागमन, शिक्षा लगभग सुसुप्तावस्था में थी । लोक जागरण का  कार्य कितना दुरूह रहा होगा ।आनंदपुर साहिब का सिक्ख समागम दसवें गुरु की सामाजिक धार्मिक राजनैतिक जागरण प्रेरणा पारलौकिक संस्थापना का हस्ताक्षर बनता है । बिखरा हुआ समाज विपन्नता का समाज, क्रिसकाय  बीमार ,निराश भयातुर समाज ,,द्वेष भेदभाव अन्याय की बेड़ियों में जकड़ा हुआ  उपेक्षा दलन,प्रतिबंधों का  मारा भारतीय  जनमानस गुरु गोबिन्द सिंह की ओट ले अपनी मुक्ति का संखनाद करता है । अतुलनीय संवेदी घटना, अविस्मरणीय तिथि अकल्पनीय दर्शन अवर्णनीय  त्याग अकथनीय संकल्प शौर्य का प्रस्फुटिकरण आकार लेता है । परिणाम स्वरूप बैसाखी साक्ष्य बनती है हमारे उद्धार व उन्नत स्वरूप का ..... । 
    लोकशाही लोकमत लोकाभिव्यक्ति को स्थान मिलता है उनका शुभागमन का कृतज्ञता के साथ  हृदय से स्वागतम  होता है । पंचप्यारों का दर्शन हमारे भारतीय जनमानस का अटूट अभिन्न अंग बनता है । भारतीय इतिहास में नवीन परंपरा का उनवान होता है " आपे गुरु -चेला "  "गुरु ही शिष्य ,शिष्य ही गुरु "जिसकी कल्पना संभव नहीं थी हमारे भारतीय जनमानस में चरितार्थ हुई ।आदर्शों अनुशीलन और अनुषंषाओं से निर्देशित हो अकथ वलिदानों  संघर्षों प्रायसो से भारतीय समाज वेदना आतंक और परतंत्रता से मुक्ति पाता है ।
खालसा के बाद का जीवन -
   देश क्या है ? देश का अर्थ क्या है ? परिभाषित होता है । धर्म क्या है ? धर्म की परिभाषा क्या है ? लोक मानस में स्थापित होती है । पूर्व की जड़ता, अंधता वैमनस्यता खोखले अहंकार आत्म मुग्धता की जगह खालसा  का विचार संचारित होता है । टूट जाते हैं  सारे बंध बेड़ियाँ शृंखलाएँ मिट जाते हैं सारे भेद अलोप हो जाती है वर्णता तथाकथित उच्चता ,शेष्ठता, शुद्धता ,खालसा की प्रचंड अग्नि में तपकर अशेष  देदीप्यमान मनुष्यता रह जाती है । गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज स्पष्ट करते हैं - " मानुख की जात सब एकै पछानिबों "
आतंक और आतताईयों के समूल नाश की प्रवृत्ति विकसित होती है  मूल्य और संस्कारों  को प्रमुखता मिलती है देश और धर्म की वलि वेदी पर आत्मोत्सर्ग की अटल भावना प्रस्फुटित होती है जो कालांतर में भारतीय इतिहास को हर सदी में गौर्वान्वित करती रही है । 
समाज की विषमताओं का संग्यान प्रमुखता से लिया जाता है अंधकूपता अतार्किकता ,अंधविस्वास का नकारा जाना खालसा के बाद के जीवन की प्रमुख घाटना है जिसे सार्थक अर्थों में जनमानस स्वीकार करता है । सरल सुबोध सात्विक जीवन शैली का उन्नयन ध्येय बनता है । ईश्वर की सत्ता और एकरूपता का दर्शन निःसन्देह बली होता जाता है । गुरु रूप परमात्मा का अभियोजक जीवन सन्मार्ग का प्रेरक बनता जाता है । परमात्मा से जोड़ने का अप्रतिम पथ गुरु होता है । 
ज्ञान विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में परिवर्तन और नवीनता स्थान लेती है समय कालानुसार निज संकल्प पर अडिग हो मानवता के कल्याणार्थ आत्मत्सर्ग का बीज सदैव संचित रहता है । लोभ  भय कदाचार असभ्यता से मुक्ति संशय का विस्थापन एक सिक्ख का आचरण बनाता है । गुरु गोबिन्द सिंह जी कहते हैं -
" मुझे सिक्ख नहीं उसकी रहत [ अनुशासन ,मर्यादा ] प्यारी है "। 
   खालसा के श्रीमुख से तौहीद की आवाज बुलंद होती है चुनौतियों  को अवसर बनाना एकता का अटल अनमोल अनवरत संघर्ष विजय तक  कायम रखना सत्कर्मों से विमुख न होना खालसा का प्रथम अदध्याय बना । आद्यतन अनवरत साथ है । 
    खालसा के विरोध में भी स्वर कम नहीं थे ,जड़ता अमानवीय धर्मांधता के पोषक आतंकी आतताईयों के समर्थक रहे समाज परिवर्तन के घोर विरोधी विदेशियों का सिंचन करते रहे गुरु सिकखी का धूर वैचारिक  विरोध ही नहीं अनेक साक्ष्य तिथियों में रनभूमि में भी सशरीर उपष्ठित हो युद्ध भी किए । पर खालसा का नारा और परचम बुलंद रहा, राष्ट्र और संस्कृति महफूज रहे । 
      कालांतर की हर सदी में खालसा अपने अप्रतिम  रूप में आदर्श बन कर अपनी अलग पहचान छोड़ता गया प्यार स्नेह सहयोग देता रहा और पाता भी रहा , न सिर्फ भारत भूमि बल्कि समस्त विश्व में वह अग्रणी पहचान के समर्थ स्वरूप है । उसके आदर्श ,प्रतिमान, उसके कर्म ,स्वरूप ,दर्शन मानव मात्र को आकर्षित ही नहीं सद्भाव व सन्मार्ग हित प्रेरित करते हैं  । 
     अपने प्रेम त्याग वलिदान आदर्शों संकल्पों की अकूत अखंड पूंजी लिए खालसा जीवन के समस्त अर्थों में स्पष्ट व अतुलनीय है । पोषित है गुरुओं की दात से मानव मात्र की संवेदना बनकर । 
खालसा मेरो रूप है खास ।खलसे मैं करूँ निवास -गुरु गोबिन्द सिंह जी । 
उदय वीर सिंह 

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

आँचल में प्रेम पयोधि भरे

पानी में प्रतिविम्ब उतरता है
पानी मे चित्र नहीं बनते
जब पैर विबाई साथ रही 
विपदा में मित्र नहीं मिलते-
जब गंगा ही मैली हो जाती 
नीर पवित्र नहीं मिलते
जब छोड़ गया उपवन को माली 
पुष्पों से इत्र नहीं मिलते
आँचल में प्रेम पयोधि भरे 
खोजे भी शत्रु नहीं मिलते-
उदय वीर सिंह



मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

बेटी के रोने की खबर फिर से आई है

बेटी के रोने की खबर फिर से आई है
बीती है सदियाँ कितनी अब भी पराई है -
खंजर हुए हाथ आँचल विष का कटोरा हुआ
ममता की आँखों में मौत उतर आई है -
हाथ हथकड़ियाँ पग बेड़ियाँ अनेकों हैं
धरती का बोझ मानो बेटी बन आई है -
फिसला जो पैर माफी मिलती न बेटी को
आशीष वाले हाथों ने जिंदगी जलायी है

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

साये न मिलते हैं, सितारे न मिलते हैं -

दूर करके किश्ती को किनारे न मिलते हैं
छोड़ करके रब का दर सहारे न मिलते हैं
रिश्ते तो मिलते हैं मातब की दुनियाँ में
बापू बेबे के नेहा सा पियारे न मिलते हैं
सरबती दिनों में सोख चश्मों का पानी है
सर्द  भरी रातों में अंगारे न मिलते हैं -
अमावस की रात का आगमन जो होता है
साये न मिलते हैं, सितारे न मिलते हैं -
उदय वीर सिंह

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

क्या दौर है शराब को,

क्या दौर है शराब को
निवाला कह रहे हैं 
टकराते जहां पर जाम,
शिवाला कह रहे हैं -
हुई निलाम सरेआम 
मोहब्बत की कली 
बेचा जिसे बाजार में,
घरवाला कह रहे हैं -
जब्त करले मसर्रत ही नहीं
अहसासों को भी 
हो अख़्तियार खुद पर
ताला कह रहे हैं -

उदय वीर सिंह