रविवार, 30 दिसंबर 2012

हम रहे इन्सान कितना......

हम   रहे   इन्सान    कितना,
कह   नहीं  सकते-
गिर सकता है इन्सान कितना,
कह  नहीं सकते-
मिट  गयी  है  लक्षमण   रेखा
कायम  कबूल थी
बिक सकता है ईमान कितना,
कह नहीं सकते -
एक  नारी  ने माँगा  समाज से
प्यार  की दौलत
मिला है  उसको मान कितना
कह  नहीं  सकते-
खो    गयी   जमीं    जिसे   वो
दहलीज    कह  रही   थी ,
पाया    है   आसमान  कितना,
कह  नहीं    सकते-
भरोषा    था   उदय   आँखों में,
समंदर जितना ,
करता  है  जां  निसार  कितना
कह    नहीं    सकते -

                            - उदय वीर सिंह






शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

लेजा अपना चाँद-


लेजा अपना चाँद, 
दे जा मेरा अँधेरा .....
कम से कम नजर
नहीं आएगा  वो चेहरा ...
जो हमसाया 
मेरीदुनियां का 
सरमाया था...|  
जिसमें लगे दाग
मैं ही नहीं ,
देख रही है पूरी कायनात ,
बयान करते हैं 
उसकी बेशर्मी बेवफाई ,दरिंदगी 
आखिर तो वो,
कहीं से पाया था ......|  
दे जा मेरे ख्वाब , 
तोड़ने के लिए, 
जिसे मैंने सजाया था ,
जो कभी  मेरा सरमाया था ....|

                            -उदय वीर सिंह 

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

भाषण तेरा सस्ता है ....


भाषण      तेरा    सस्ता  है
व्यवहार  में  है आवारापन -
हाथों     में     गुलदस्ता  है
कानों में कितना बहरापन-

जिह्वा   पर  मीठी  मिश्री है ,
छल  -  वासना  आँखों  में -
पांचाली    या    अनसुईया,
कुंती, जोधा  की स्वांशों में-

निति-वैधव्य  ही जाई क्यों
कुंठा      व        बंजारापन-

पूत   तू   है  एक   बेटी  का,
फिर भी  बेटी  का  घाती है,
तेरे    घर    में   तेरी    बेटी,
असुरक्षित   है , मुरझाती है -

रोती  कहती  सृजना हूँ   मैं,
क्यों    नहीं    है   अपनापन-

नेता अभिनेता रक्षक  साधू
कर्णधारों   का  नाम   देख-
बंधू ,कुटुंब, मित्र , सम्बन्धी
रक्त - रंजित  हैं  ,पढ़  प्रलेख-

संस्कार से  है मानस खाली,
कर्म    से   है   नक्कारापन- 


                       -उदय वीर सिंह 







शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

कर लेते हजार बहाने ...


सिमटती

गयीं दूरियां ,..
फासले बढ़ते गए,
दिलों के ....
शीशा चिपका है संगदिल 
दीवारों से, दिल भरोसे से..|
टूटे कांच ,बदलने  का रिवाज
कायम ,दिल भी बदल जाते...
काश !
शीशे  की तरह .....|
पिघल जाते मोम की तरह, 
कर लेते हजार बहाने 
न टूटने के ,...|
क्यों जम जाते हैं,किसी भी
मौसम में 
रख कर यादों को |
अंतहीन खामोशियों को ओढ़ 
बिना दस्तक ,आवाज 
दे  जाते अतल गहराईयाँ 
दर्द की ,हमदर्द थे ,
बे -दर्द होकर ........|

                            उदय वीर सिंह .


बुधवार, 19 दिसंबर 2012

दर्द दे गया......


हमदर्द   है   जमाना   कि    दर्द   दे  गया,
कुछ  ख्वाब  थे अधूरे, कुछ और  दे गया-

किस्तों  में   है  चुकानी  हर  बार  जिंदगी,
निभा रहे थे फर्ज कि, कुछ  और  दे  गया-

कुछ  शाम सी,सुबह हुयी हम देख न सके,
दबे  हुए  थे  कर्ज  में  कुछ  और  दे  गया-


कुछ  बोझ  फैसलों  का  पहाड़ बन  गया, 
कम  होने  के  बदले  कुछ  और  दे  गया-


हमराह  था  मुकद्दर  मंजिल  भी पास थी,
दौर   जलजलों   का   कुछ  और  दे  गया- 


कश्ती की तमाम कीलें उखड़ने लगीं उदय,
उबरे  कि  ठोकरों  से  कुछ   और  दे  गया-  

                                     - उदय वीर सिंह 


   







  

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

-लिव- इन -रिलेसनशिप-




-लिव- इन -रिलेसनशिप- 

माँ ने पूछा था ,

शरद कैसी है बहु ,
साथ नहीं आई  ?
नहीं माँ ,
फिर कभी ...
सुना है ,सुन्दर है नौकरीपेशा है....
बताओगे नहीं उसके बारे में ...
हाँ जी ! फिर कभी ....
माँ ! अपर्णा की सगाई, शादी ...
बताया नहीं,किसी ने
कुछ भी मुझे .. 
क्या करती, बच्चा गोंद में  था,
वह लिव- इन -रिलेसनशिप में थी | 
तुम्हारा जबाब था, 
फिर कभी .... |
हाँ करनी पड़ी ,
मुए कलूटे बद्दजात के साथ  ..|
थोड़ी देर पहले तेरी बीबी समीर 
का फोन ,
सूचित कर दिया मुझे   
तुम भी लिव- इन -रिलेसनशिप में हो 
बेटी की तो, गोंद भी भरी 
अपनी पुरुष- बहू की 
गोंद भराई भी नहीं कर सकती ,
ये कैसी विधा है ,
विधान है .....
संसकारों का परिमार्जन
या अवसान है ...  |

                       - उदय वीर सिंह 


  

  
    
  

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

हम पर फ़िदा है



हम पर फ़िदा है सदा -ए- मोहब्बत 
की  है   इबादत   हम   करते  रहेंगे- 

हवाओं के आंचल लिखी दास्तान है
हमने  लिखा  है ,फिर  भी   लिखेंगे -

बरक -ए-मोहब्बत किताबें  बनेंगीं ,
पढ़ा   हर   किसी   ने हम  भी पढेंगें -

इस पार  तुम हो, मोहब्बत है  मेरी,
उस पर क्या है नहीं हमको मालूम -

मौजों   के  ऊपर  लिखे  फलसफे हैं
लिखा    है  रब  ने  हम  पढ़ते रहेंगें-

निगाहों में क्या है जो देखो तो जानों ,
तुम्ही तुम बसे हो बयां अक्स करते -

फूलों   के  हाथों   में  मेहदी  रची  है
उन फूलों को आंचल में  भरते रहेंगे -




                    - उदय वीर सिंह

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

मलाल है जिंदगी से ,.....


क्यों     मिलता   है    ऐसा    हाल,
मलाल        है ,     जिंदगी       से -
क्या    पहनने ,  ओढ़ने   को  सिर्फ
दर्द   ही   हैं,  सवाल  है  जिंदगी से-
भूख ,   कचरों   में  ढूंढ़  थक  गयी
मासूमियत  भी  लाचार जिंदगी से -
कभी   दे  सको  तो  इस्तहार देना
कितना  है इनको प्यार जिंदगी से -
धर्म, संसद, कानून का कितना रह
गया    है ,  सरोकार   जिंदगी   से  -
मिला किसी को नूर,दौलत माँ-बाप
किसका है इनको इंतजार ..... ?
जिंदगी  से-...... |

                         - उदय वीर  सिंह  

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

इस देश की मिट्टी पोली है ,,,


इस  देश की मिट्टी  पोली है
हर  पौध   उगाया  करती  है -
जन्म -मरण,उत्थान -पतन,
हर  रश्म  निभाया  करती है -

गेंदा  गुलाब , केशर  चन्दन ,
बेला  केतकी  चंपा  की  डार ,
हल्दी नीम, तुलसी श्रीमौली,
अफीम,धतुरा भंग की क्यार-

आम सेब  अंगूर, मधुर फल,
आँचल  में सजाया  करती है-

नागफनी , बबूल, कंठ - बेल,
कंटक - झाड़ी ,   अमलतास
स्वर्ण, रजत, ताम्र  से सुन्दर
उगते रुचिकर पुष्प  व  पात-

जीवन- जन  अभिशप्त न  हो ,
शुभ  अन्न  उगाया  करती है-


हूँण ,   सकों ,  यवनों  यतीम 
तुर्क , मंगोल , गुलाम  मुग़ल,
धूल धूसरित लांछित  पग थे,
इस  मिट्टी  का  भाव  सबल -

सद्भाव सानिध्य स्नेह की लोरी 
वत्सल भाव दिखाया करती है -

कुटिल,कामी गद्दार अविवेकी
मांगी    शरण     पाई   है  यहाँ  
उनके  संस्कारों  से क्या लेना,
निज संस्कारों को जाई है यहाँ -

वस्त्रहीन  को  वस्त्र ,मृतक को
कफ़न     ओढाया     करती  है-  


झंझावत  ,  तूफान     बहुत  से 
आये   और     विश्राम      लिए ,
एक कण भीकिंचित डिगा नहीं
स्थापित    है   सम्मान    लिए -

संचित ज्वाला  हृदय में इतनी 
अंशुमान     उगाया     करती है -

कर्ण ,   दधिची ,  बलि    सपूत 
देते     दान ,     प्रतिदान   नहीं ,
गुरुओं   के   पग   पावन  आते ,
पाया     स्नेह   अवसान    नहीं-

अभिसरित   हुआ  है प्रेम सदा 
वह     राह   बनाया   करती  है -

                              - उदय वीर सिंह  





  
   




 

     


रविवार, 9 दिसंबर 2012

जलाओ मशाल कि...


जलाओ मशाल कि रौशनी हो,
अभिशप्त प्रलेखों को फूंकने  का
हौसला रखो ....।

जलती मशाल में तेल कितना है ,
कम पड़े तो देह की चर्बी जलाने का,
फैसला रखो .....। 

हर तूफान से गुजरने का आता है हुनर,
तूफान रचने वालों से, तूफान का 
रास्ता  पूछो .....।

करवटें बदल लेने से ,रात ख़तम नहीं होती
चैन की नींद आये काँटों पर,
जूनून से वास्ता रखो  ...।

मौकापरस्तों ने इलहाम को भी बख्सा नहीं
वे क्या देंगे मुकाम  उन्हें 
बाहर का रास्ता रखो  ....।

परजीवियों को हलालो-हराम नहीं मालूम 
खून के आशिक, ख़ूनियों से 
फासला रखो .....।

सफेदपोशों का दौर ख़त्म करना होगा
वक्त का तकाजा है ,सरफरोशों का 
काफिला रखो ........। 

अपने घर में अजनवी होने का दर्द कैसा है ,
 याद आये तो ,कुछ कर गुजरने की
लालसा रखो ...... ।

                                     -उदय वीर सिंह 





      


शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

मोड़ भी हैं बहुत



जीवन की चादर लगे दाग कितने
लगाये किसी ने ,धुलाये किसी ने ,

***
दर्द से आशिकी के फ़साने बहुत हैं ,
छुपाये किसी ने ,दिखाए किसी ने -

***
अँधेरी  रातें , अंधेरों   में   दीपक ,
जलाये किसी ने ,बुझाये  किसी ने-

***
मोड़ भी हैं  बहुत ,रास्ते भी बहुत ,
मंजिल  कहाँ   है बताये  किसी ने-

***
राहों  में  अनजान कितने  पड़े  थे ,
गिराए  किसी  ने, उठाये किसी ने-

***

बागों  में  सुन्दर खिले फूल कितने,
सजाये  किसी  ने  उगाये  किसी ने-

 ***


                                उदय वीर सिंह
                                  07/12/2012

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

प्रणेता के गान से..


नीड़ , मंदिर    बन    चले ,

समिधा को स्वरूप देते हैं 
प्रणेता      के     गान    से
तूफान   उठा     करते   हैं-


छैनी  हथौड़ों  की  चोट से 
गुजर  कर रूप मिलता है,
वज्र -पत्थर ही  शमशीरों 
को     पैनी   धार  देते   हैं -


सिहर    उठते    हैं   हृदय,   
धरा  व   गगन  दोनों   के,
लौटती है  सुनामी तट से 
पानी   से   दीप  जलते  हैं-

लहरों    पर      हस्ताक्षर

किये       गए        अमिट,
देख   तूफान  भी  अपनी,
राह      बदल      लेते    हैं-

टुकड़े - टुकड़े   में    पैबंद

को ,  गवारा  नहीं   सीना
जमीर   का    ख्याल    है
उन्हें ,चादर  बदल देते  हैं-

न  रहा, न रहेगा  कायम ,

जख्म में खंजर कातिल ,
सदा   पैगाम    आया   है 
अमन का जख्म भरते हैं -

उजड़ने , बसने   का   दर्द
करवट   बदलने  जैसा है
जहाँ   भी    गए   तकदीर
बदल            लेते        हैं  -


बंजर ,  वीभत्स    धरती ,
उपहास    करता   मरुधर
रेतीली  हवाओं के बाढ़ में  
नखलिस्तान    बनते   हैं -

दर्द  का आसमान  इतना

भी,  उन्नत    नहीं   होता ,
प्रेम   के  परवाज   उड़ान 
भरते    हैं   ,  छू   लेते   हैं -

मोहताज     नहीं     किसी 
कलम,कागज रोशनाई के
जमाना लिखता है दिल में  
जन   की आवाज बनते हैं -

                      - उदय वीर सिंह 







रविवार, 2 दिसंबर 2012

परिहार


बयाँ      कर     रहा     है ,  जिस्म    का
हर   सुराख़ , गोली  सीने  में   खायी  है,
ये  अलग है,लगाया सीने से एतबार था  
नजदीक  से  गोली, अपनों   ने  मारी है-

पाबंद   है  लहू  ,रगों में  बहने के लिए
सडकों  पर  बहाना   इल्म  से धोखा है ,
नफ़रत  कुफ्र  से  हो ,होनी  भी चाहिए
इन्सान     से    हो ,   कहाँ     लिखा  है-

जब  भी   सिंकी  रोटी, आग   में  सिंकी
जली भी आग में जब सलीका न आया
लड़े   गए   जंग , वजूद   भी    उसी   से
दौरे उलफत या नफ़रत, रोटी  ही खाया -

हमारे  वजूद  से ये  दुनियां नहीं कायम,
बा -  वजूद   हैं   दुनियां    में    हम   भी,
किसके वजूद से किसका वजूद कायम है  
जबाब   आये ,  तो    सवाल   अच्छा  है -

                                       -उदय वीर सिंह