क्यों हथियारों की बात करें।
आज जरूरत खुशहाली की
आओ औजारों की बात करें।
हर अधर चाहता प्रेम गीत
हर आंगन मधुवन हो जाये,
बहने दो पवन बहारों के,
क्यों दीवारों की बात करें।
उदय वीर सिंह।
......जीवन का सर्ग ✍️
छोड़ कल्पना कल्प कलिल
यथार्थ धरा तल आओ जी।
त्याग विरुदावली दरबारी
कुछ लोक रसायन गाओ जी।
पांव पीर तल फटी विबाई
जतन बहुत पर भर न पाई,
हर्ष अलंकार रस भरी किताबें
निज कंठ सरस कुछ गाओजी।
भरा प्रेम से हर पन्ना - पन्ना
गति पवन घृणा की थम न पाई
रंगमहलों के तज ललित व्यास
कुछअबलों की व्यथा सुनाओ जी।
रस भरे अधर तन कंचन की
धन कुबेर मद अतिरंजन की
यश गाथा से भरे अम्बर अवनी
मजलूमों की कुछ खैर मनाओ जी।
राग रंग रति दिव्यों के मंडन
का अतिरंजन तज,
यह रीतिकाल का कल्प नहीं
जीवन का सर्ग बताओ जी।
उदय वीर सिंह।
........✍️
शायद!
बहुत
गहरे तक दरक
गयी है,
दीवार ही नहीं
छत भी,
गिर सकती है कभी भी..
जिसके नीचे
सहज सरल समभाव में थे-
अमन विकास सुरक्षा शिक्षा
स्वास्थ्य न्याय संस्कृति अवसर सहकार अभिव्यक्ति...।
उसके नीचे निर्मित
हो रहे हैं
विशाल दलदल,
पार्श्व में मरुस्थल।
आदिमता रूढ़ियाँ आस्था मान्यता मिथकों असमानता अन्याय के तमाम...।
शायद वे विकल्प होंगे
समता ममता दया
करुणा,न्याय
प्रेम शांति सद्द्भाव अवसर
उन्नति
मानवीयता के...।
उदय वीर सिंह।
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लिखने को सूरज चांद प्रखर,
दीपक की बधाई क्यों लिखता।
जब आंखें हैं तो आएंगे ही
आँसू की विदाई क्यों लिखता।
काफी हैं झूठ फ़रेब कलुष
मेहनत की कमाई क्यों लिखता।
होता निर्वाह पसीना बहके भी
बेशक महंगाई क्यों लिखता।
भीड़ अगर खामोश न होती,
सफ़र -ए-तनहाई क्यों लिखता।
देखा सबने पर देख न पाए
बाजीगर की सफाई क्यों लिखता।
उदय वीर सिंह।
कहने का संकल्प सबल
सुनने का साहस रखिये।
आघात पीर का दाता है,
देकर पाने का बल रखिये।
लौट आती प्रतिध्वनि बनकर
अपनी ध्वनि जैसी भेजी,
अपने शब्दों केही स्वागत में
खाली अपना आँचल रखिये।
कांटों से गंध नहीं मिलती
चाहे वन में हों या रंगमहल
कभी कीच गेह अनुमन्य नहीं
चाहे नाम भले संदल रखिये।
उदय वीर सिंह।
🙏🏼नमस्कार मित्रों !
सार्थकता और सृजन की सदा प्यास रखिये।
धूप व छांव स्थायी नहीं ऊंचा आकाश रखिये।
पाखंड और चमत्कारों की सनसनी से कहीं दूर,
अपने मन-मानस और बाहुओं पर आस रखिये।
बादल कुछ घने हैं इस पार अवसादों के माना,
उस पार रोशनी है मन को मत उदास रखिये।
ये दीये बुझ जाते हैं चली तेज रफ्तार हवाओं से,
कभी न बुझता ज्ञानदीप दिल में उजास रखिये।
उदय वीर सिंह।
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रही सल्तनत फ़रेब तो ईमान भी रहा है।
हैवानियत की सरजमीं इंसान भी रहा है।
कम नहीं हुआ रोज तारों का टूट गिरना,
कहकशां का एक पूराआसमान भी रहा है।
मिटाने के हसरती तूफान भी चलते रहे,
बर्बादियों के बीच रोशन मकान भी रहा है।
मुंतजिर यूं ही नहीं पत्थरों के बीच कोई
कहीं दान के प्रकाश में प्रतिदान भी रहा है।
आलोचना के कर-कमल कीच में खिलते रहे
अपमान के उर्वर धरातल मान भी रहा है।
हिन्दू - मुसलमान की दीवारें बहुत ऊंची हईं,
इंसानियत की शान में सतनाम भी रहा है।
उदय वीर सिंह।
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जो ख़्वाब में नहीं थे इश्तिहारों से आ गए
हमदर्दी के जले ज़ख्म बाजारों से आ गए।
मेरी कमनसीबी को कल सुना रहे थे अपने
आज देखा सुर्खियों में अखबारों से आ गए।
ख़ारों ने जमा रखी हैं जड़ें बसंत के गांव
पतझड़ के अफसाने बहारों से आ गए ।
कितना सूनापन है मेलों में , सबब क्या है
सरगोशियां हैं कि दिन उधारों के आ गए।
अर्थ का गुमनाम हो जाना विस्मित नहीं करता
तालियों के कीर्तिमान शब्दालंकारों से आ गए।
उदय वीर सिंह।
...🙏🏼553वें प्रकाशपर्व की पूर्व संध्या पर समस्त देश-विदेश वासियों को प्रकाशपर्व की लख लख बधाई व शुभकामनाएं...✍️
नानक नाम अधारा...
आदिगुरु गुरु नानक देव जी (THE PATH )
" सतगुरु नानक परगटिया
मिटी धुंध जग चानड़ होया "
मिती कार्तिक पूर्णिमा,सुदी 1526 [A .D .1469 ] ननकाना साहिब [ तलवंडी -राय भोई ] लाहौर से दक्षिण -पश्चिम लगभग चालीस किलोमीटर दूर [अब पाकिस्तान में ] परमात्मा की समर्थ ज्योति का उत्सर्ग | पिता ,कालू राम मेहता और माँ, त्रिपता की पवित्र कोख से जग तारणहार बाबे नानक का देहधारी स्वरुप आकार पाता है।
पूरी मानव जाति इस समय वैचारिक तमस के आगोश में ,भ्रम की अकल्पनीय स्थिति बिलबिलाती मानव प्रजाति ,कही कोई सहकार नहीं ,किसी का किसी से कोई सरोकार नहीं, धार्मिक आर्थिक सामाजिक सोच नितांत कुंठा में डूबी, अलोप होने के कगार पर, विस्वसनीयता का बिराट संकट ,दम तोड़ती मान्यताओं की सांसें ,जीवन से जीवन की उपेक्षा ,दैन्यता की पराकाष्ठा, दुर्दिन का चरम ,यही समय था जब परमात्मा ने देव - दूत को भारत- भूमि पर उद्धारकर्ता के रूप में आदि गुरु नानक देव जी को पठाया | इस पावन- पर्व पर परमात्मा के प्रति कृतज्ञता व आभार, साथ ही समस्त मानव जाति को सच्चे हृदय से बधाईयां व शुभकामनाये देता हूँ ।
बाबे नानक का मूल- दर्शन -
-आडम्बरों से दूर होना
-मनुष्यता की एक जाति
-विनयशीलता व आग्रही होना
-पूर्वाग्रहहीनता ।
-एकेश्वरबाद का स्वरुप ही स्वीकार्य
-जीवन के प्रर्ति उदारता, दया, क्षमा
-कर्म की प्रधानता एक अनिवार्य सूत्र
-ज्ञान और शक्ति का बराबर का संतुलन
- निष्ठां संकल्प और कार्यान्वयन
-जीवन की आशावादिता
आत्मा की मुक्ति का स्रोत परमात्मा की अनन्य भक्ति
-आचरण और आत्म शुचिता का सर्वोच्च प्राप्त करना
-ईश्वर में अगाध आस्था ।
आदि गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को पाने ,पहचानने का माध्यम गुरु को बताया ,
" भुलण अंदरों सभको,अभुल गुरु करतार "
और
" हरि गुरु दाता राम गुपाला "
बाबा नानक का कथन , समर्पण और विस्वसनीयता के प्रति सुस्पष्ट है -
"गुरु पसादि परम पद पाया ,नानक कहै विचारा "
बाबा नानक परमात्मा को इस रूप -
"एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभउ निरवैर अकाल मूरति अजुनी सैभंगुर परसादि "
में ढाल कर समस्त वाद -विवाद को ही जड़ से समाप्त करते हैं ,और यही शलोक सिखी का मूल मंत्र बन जाता है ।
बिना किसी की आलोचना , संदर्भ या विकारों को उद्धृत किये बाबा नानक समूची मानवता को प्रेम का सन्देश देते हैं कहते हैं -
माधो , हम ऐसे तुम ऐसो तुम वैसा ।
हम पापी तुम पाप खंडन निको ठाकुर देसां
हम मूरख तुम चतुर सियाने ,सरब कला का दाता ....माधो ...
जीवन की मधुरता ,सात्विकता और रचनाशीलता में है । , बाबा कैद में भी और अपनी उदासियों [यात्राओं]में भी ,निर्विकार भाव से अहर्निश प्रेम व सत्य को जीता है ....उसे परमात्मा की ओट पर पूरा विस्वास है ,-
"साजनडा मेरा साजनड़ा निकट खलोया मेरा साजनड़ा " ।
बसुधैव कुटुम्बकम कि वकालत करते हुए बाबा जी ने अन्वेषण ,अनुसन्धान को कभी रोका न नहीं ,मिथकों को तोड़ स्वयं भी देश से बाहर गए और उनके सिख विश्व के प्रत्येक भाग में उनकी प्रेरणा से यश व वैभव सम्पदा से सुसज्जित हैं .। ज्ञानार्जन को सिमित या कुंठित नहीं किया . ।
समाजवाद का बीज बाबा नानक ही बोता है ,कर्म कि रोटी को दूध कि रोटी साबित करता है -
" किरत करो बंड के छको ".
आदि गुरु मानव -मात्र कि सेवा मे स्वयं को निंमज्जित करते हैं , सर्व प्रथम मानव मात्र के लिए भला चाहते हैं ,बाद में अपना स्थान रखते है ।
" नानक नाम चढ़दी कलां ,तेरे भाणे सर्बत दा भला "
अंत में लख -लख बधाईयों के साथ -
मुंतजिर हैं तेरी निगाह के दाते ,
इस जन्म ही नहीं हजार जन्मों तक।
उदय वीर सिंह।
ये टूटा हुआ घरौंदा बनाने को रह गया है।
ये उजड़ा हुआ चमन बसाने को रह गया है।
तूफ़ानी लश्करों से हवाओं ने जोड़ा रिश्ता
ले जायें कहीं उड़ाकर छिपाने को रह गया है।
तक्षशिला नालंदा की बुलंदी कभी रही,
अदीबों की महफ़िलों में सुनाने को रह गया है।
भटकने लगे हैं लोग अंधेरों की जद शहर,
चौराहे का रोशनीघर दिखाने को रह गया है।
बरसने लगी है कालिमा अंबर से इस कदर,
किसी साये मेंअपना दामन बचानेको रह गया है
यह जानकर भी अपना हर कोई सगा नहीं,
रिश्तों के इस सफ़र में निभाने को रह गया है।
उदय वीर सिंह।
.........✍️
पढ़ो न पढ़ो गीत रचते रहेंगे।
पग गंतव्य की ओर चलते रहेंगे।
आएगा मधुमास पतझड़ के पीछे
रंग लेकर कई पुष्प खिलते रहेंगे।
बुझा दे पवन वेग आले के दीये
हृदय में जले दीप ,जलते रहेंगे।
तपेगी अगन में जहां भी ये धरती
नेह ले नीर बादल बरसते रहेंगे।
दीवारों के निर्माण होते रहे हैं,
मगर द्वार उनमें भी खुलते रहेंगे।
कटीली हवावों ने फाड़े वसन को
पैरहन अपने पैबंद सिलते रहेंगे।
उदय वीर सिंह।