गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

सींचता कोई -

Udaya Veer Singh's photo.


उजाड़ेलाख गुलशन को 
सींचता कोई -
फूल खिलते हैं बहुत
महकता कोई -
प्रीत की रीत तो देखो
हँसता है रोता कोई -
दात कैसी निराली है
काटता है बोता कोई -
घुमड़ते घन हजारों हैं
बरसता कोई -
किसी के पास खजाना है
तरसता कोई -
हंजू मौन हो बहते
उदय समझता कोई -

उदय वीर सिंह

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ख़ैर-

हमको सम्हाला मुशीबतों ने
ख़ैर हमसे रूस गई -
अच्छा हुआ तन्हा नहीं मैं  
घर हमारे बस गई -
मैं उडीकां बीच नहीं हूण
नाल आती ले सुबह नई -
चाहता मसर्रत जाए वहाँ 
जहां हसरत अधूरी रह गई -
शाख का पत्ता सरिखा 
हवा फिर मौज लेकर बह गई 
खोल कर रखना जिगर 
जाते जाते कह गई -

उदय वीर सिंह 

रविवार, 26 अप्रैल 2015

त्रासदी -

- त्रासदी -
तूँ मौत के हो हमसफर
हमें जिंदगी से प्यार है -
तुम सृजन के दैत्य द्रोही
सृजन मेरा संस्कार है -
मौत के आगोश में भी
जिंदगी पलती रही है
तोड़कर पाषाण को भी
जिंदगी बसती रही है-
हम गीत से हैं नेह रखते
तुम्हें रुदन से सरोकार है -
गुल रहे गुलशन रहे
हँसती धरा ,चमन रहे
शिकश्त देती मौत को
जिंदगी का फन रहे -
तुम दरिंदगी का फलसफा
हमें सृजन से प्यार है -
तुम दर्द को बोते रहे
खुशी मेरा व्यापार है -
उदय वीर सिंह

स्वप्न का अनुबंध कैसा ...

फलसफ़ों की बात है 
कौन झूठा कौन सच्चा -
सबके अपने राग स्वर हैं 
कौन मंदा कौन अच्छा -
मौत के कर कब चुने हैं 
कौन  बूढ़ा कौन बच्चा -
वेदना के नैन जाने  
स्वप्न का अनुबंध कैसा -
जाएँ बिखर संकल्प के स्वर 
मोद का यह जन्म कैसा -
रोई कलम जब सत्य लिखते 
न्याय से संबंध कैसा -

उदय वीर सिंह 







रविवार, 19 अप्रैल 2015

किडनी के आपरेशन में......

मानस तो रहा वही सिर्फ कलेवर बदल गया
किडनी के आपरेशन में ,लीवर बदल गया -
रिस्तों के बाजार में कितनी उमस हुई उदय
सियासत में भाभी तो कभी देवर बदल गया-
धर्म भी छोटा पड़ जाता है मतलबपरस्ती में
पगड़ी किसी की टोपी कहीं जेवर बदल गया -
भेड़िया खाएगा आखिर मुर्दा या जिंदा मांस
आम की दहलीज खास का तेवर बदल गया -
बोतलबंद द्रव्यों की पहचान भी करोगे कैसे
डाल मौसमी व आम की फ्लेवर बदल गया -
उदय वीर सिंह

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कहाँ बदला है आदमी ....

नफ़रत की आग में कितना जला है आदमी
आज भी अपनी ही रौ कहाँ बदला है आदमी -
धर्म के हरकारे वहीं जाति का बंधन वहीं
क्षेत्र की विभीषिका भाषा का क्रंदन वहीं । 
खा असंख्य ठोकरें कहाँ संभला है आदमी -
गोरी त्वचा काली त्वचा विष वमन का दौर
ज्ञान चक्षु बंद है बनी अज्ञानता सिरमौर ।
वांछित विकास पथ छोड़ कहाँ चला है आदमी -
शव के ऊपर पग धरे चाहता गंतव्य को
तोड़कर निर्देश नीति चाहता मंतव्य को ।
औचित्य का संज्ञान ले कहाँ मिला है आदमी -
विषमताओं का परिवेश फिर भी उन्माद में
परिमार्जन को त्याग कर ,अशेष है संवाद में ।
मानस में अपना पराया भूला कहाँ है आदमी -
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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

कणक के दानों की जगह ....

खेतों में अपनी बर्बादियों का मंजर देखा 
बड़ी गमगीन नजरों से लुटा हुआ मुकद्दर देखा -

बडी हसरतों से ख्वाबों की नेक फसल बोया 
कणक के दानों की जगह नामुराद पत्थर देखा -

याद आया बैंक का कर्ज,पढ़ाई बेटी की कुड़माई 
जेहन में मौत का फासला मुख्तसर देखा -

कितना यतीम वना गए पानी के सफ़ेद गोले 
सूनी निगाहों से रब कभी घर को भर नजर देखा-

हर दरो-दीवार की सरगोशियों में मसर्रत थी 
कल तक तामिरे ताज ,आज खंडहर देखा -

उदय वीर सिंह 

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

बैसाखी एक हस्ताक्षर

 समस्त देश वासियों को बैसाखी की लख -लख बधाइयाँ.....
          आएंगे गम हजारों एहतराम करते हैं,
          हो जाएंगे रुखसत बैसाखी की आंधियों में -


          " बैसाखी एक हस्ताक्षर इतिहास का, बर्तमान का, भविष्य की जिवंतता का मानद स्वरूप "

भौगोलिक रूप से भारतीय प्रायद्वीप के उत्तरी खंड में नयी फसल कणक [गेहूं ] का पककर तैयार हो जाना ,जो मुख्य भोज्य- स्रोत ही नहीं आय का मुख्य साधन भी है । इससे किसान की तमाम उम्मीदें आस बंधी होती हैं। पढ़ाई ,कुड़माई, दवाई ,घर की मरम्मत,गहने, कपड़े की खरीददारी गुरुद्वारों- मंदिरों के दर्शन ,लिए गए कर्जों की चुकाई आदि दायित्वों के साथ हसरतों का स्रोत बैसाखी । कितना अच्छा लगता है उसका आगमन ,कितनी प्रतीक्षा रहती है इस पर्व की ।जो निरंतर प्राचीनता को समेटे वर्तमान का सुमंगल गान करती है ।अर्थतःसमस्त यक्ष प्रश्नों का निरापद उत्तर बनकर प्रतिनिध्त्व प्रदान करती हुई । बैसाखी की एतिहासिकता समग्र रूप में एक अशेष आत्मविस्वास का विमोचन है । जिसने आत्मबल ही नहीं सर्व- बल समर्थता को रेखांकित किया है ।
खालसा पंथ की साजना - आज के ही दिन सिक्खों के दसवे गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने जुल्म, जबर, आतंक अन्याय के विरुद्ध मानव मात्र को सहेजा, खालसा पंथ को आत्मबल के साथ अमृत-शपथ का कठोर अनुशासन व जीवन का अप्रतिम प्रस्तर- कलेवर दे ,समस्त अंधविस्वासों को दफन कर, किसी भी भेद को अमान्य करार दिया -
'मानुख की जात सब एकै पछानिबों '
का सूत्र वाक्य ही नहीं दिया वरन व्यवहार में प्रतिवद्धता के साथ अपनाया भी । यही अकाल पुरुख की फौज कहलाई जिसने हिदुस्तान की दशा और दिशा को निर्धारित किया ,जिसके आज हम बेदाग गौरवशाली वारिस हैं । जिसकी आत्मीय दिगंतता व स्वीकार्यता वैश्वीक हुई । लोकतन्त्र की व्यवस्था को विश्व मंच पर स्थापित किया - 
   " वाहो वाहो गोबिन्द सिंह जी आपे गुरु चेला " 
सर्वप्रथम न्याय व निर्णय को पंचायती व्यवस्था का रूप प्रदान किया । जो अद्वितीय है । 
पुण्य बैसाखी के प्रताप को साक्ष्य मान फिरंगी शासन के विरुद्ध एका हेतु आहूत जनसभा अमृतशहर [ जालियाँवाला बाग ] मे उपस्थित निहत्थे जनसमूह के दमनार्थ सभी आवागमन के मार्गों को बंद कर बंदूक की गोलियों से अंग्रेजों द्वारा भून दिया गया ,जिसमें बृद्ध है नहीं महिलाए व अबोध बच्चे भी शामिल थे । यह वेदना का दंश भी हमारे साथ है । 
मुसलमानी शासन में भी बैसाखी को सर्व-समन्वय तिथि मान इसे कई बार निषिद्ध घोषित किया गया । भारतीय संस्कृति के उन्मूलनर्थ अनेकानेक प्रयत्न किए गए । परंतु आज भी बैसाखी धन -धान्य खुशहाली का स्वरूप ले हमारे हृदय व घरों में आती है ,हमारी दिशा व दशा परिवर्तित करने । बैसाखी के दामन में कहीं गम है ,तो साथ ही गम को तिरोहित करने का आत्मबल भी है ,अपार खुशियाँ भी हैं ,गुरुओं का दिया सुख का अनंत भंडार भी है । 
                अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ बैसाखी की लख -लख बधाइयाँ ........
जो तो प्रेम खेलन का चाओ ,सिर धर तली गली मेरे आओ ।
" जेह मारग पैर धरीजै,शीश दिजै कान्ह न कीजै "
उदय वीर सिंह

रविवार, 12 अप्रैल 2015

क्या दान पर हम छोड़ते -



न कर सके प्रतिदान भी तुम
क्या दान पर हम छोड़ते -
अंकुश नहीं आभिमान पर क्या
स्वाभिमान पर हम छोड़ते -
जब आश्रय नहीं स्थूल धरा पर
क्या आसमान पर हम छोड़ते -
जब डिग रहा विस्वास अर्चन
क्या नादान पर हम छोड़ते -
आई कंधों पर अर्थी नेह की फिर
क्या भगवान पर हम छोड़ते -
उगा लिया जब विष-दंत मानव
किंचित दैत्य को क्या कोसते -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

रब का वास्ता देकर -

आंशू ही ढले ,ख्वाबों को लंबी उमर देकर
उदय रोया बहुत जज़्बातों को जगह देकर -

सहरा की आतिशी का मैं कैसे गिला करूँ
न किया है कोई अहसान हमने शजर देकर-

तलाशे मंजिल सफर में रहा मुसाफिर मैं 
तुम सर करो मंजिल खुश हूँ रास्ता देकर -

मांगी दुआयेँ रब से ,रहे रफ्तगी कामिल
लूटा गया बहुत मैं रब का वास्ता देकर -

उदय वीर सिंह

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

सयाने लोग



                                                                                                             मुहिम  [ नशा मुक्ति ]

                       - सयाने लोग -
दो विभिन्न दिशाओं से चल धर्मपुर खुर्द  तिराहे पर अजायब सिंह जी व सतनाम सिंह जी की संयोग वस हुई मुलाक़ात जहा से दोनों ही एक रास्ते के लिए तिराहे से रुखसत हुए । शाम का सुहाना मौसम गुलाबी ठंढ ,बातों का सिलसिला यूं ही चल निकला दोनों ही अपने गांवों के लंबरदार जो ठहरे । चलते चलते पिंड समाज धर्म पर बातें होती रहीं फिर सामयिक राजनीति पर आ गयी । बाते घोटालों से शुरू हो नशे पर केन्द्रित हुई । नशा नौजवानों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है नशा मुक्ति पर किसी का ध्यान नहीं है । सरकारों का भी । सतनामम सिंह ने चिंता भरे उच्छवास भरे । 
अजायब सिंह - आप बहुत भोले हैं सतनाम सिंह जी । 
सतनाम सिंह - आप को कैसे मालूम जी । 
अजायब सिंह - आप नशा जो नहीं करते हैं जी । 
सतनाम सिंह - नशा न करना कोई बुराई है जी ?
अजायब सिंह - अजी मैं कैसे कहूँ आप बुरा मान जाएंगे । 
सतनाम सिंह - मैं क्यों कर बुरा मन्नण लगा । 
अजायब सिंह -  सारी दुनियाँ कह रही है जी । 
सतनाम सिंह - कौन कह रहा है जी कहाँ कह रहा है जी ।
अजायब सिंह - वीरे ! दुनियां दी छड्ड संसद के वासिंदे सांसद कह रहे हैं ।
सतनाम सिंह - वो ऐसा कह रहे हैं , वो तो जनता के नुमायिन्दे हैं । सयाने लोग है जी । 
अजायब सिंह - यही तो ! वे इसका व्यापार करते हैं ,वो सयाने लोग हैं । इसमें फायदा है 
सतनाम सिंह - क्या फायदे के लिए .....कुछ भी .....
अजायब सिंह - इसी लिए आप भोले हैं ....नशे से सेहत से मुक्ति , धन से मुक्ति ,ईमानदारी से ,मुक्ति सदाचार से 
मुक्ति ,कर्तव्यों से मुक्ति ,परिवार से मुक्ति,समाज से मुक्ति शीघ्र ही जीवन से भी ...... क्या समझे सतनाम सिंह जी ।  
सतनाम सिंह - तो हूण तुसी वी सयाने हो गए जी ?आश्चर्य मिश्रित शब्दों सतनाम सिंह जी में बोले । 

उदय वीर सिंह 


रविवार, 5 अप्रैल 2015

रिस्तों के पाँव कहाँ गए

न मालूम रिस्तों के पाँव कहाँ गए 
शजर वही, न जाने छांव कहाँ गए -
रिस्तों की बुनियाद पर बसती जींद
शहरी भीड़ में न जाने गाँव कहाँ गए- 
आँचल बेबे का कभी गुम न हुआ
न जाने आदर्शों के निशान कहाँ गए -
उम्र छोटी हुई या बड़ी सोचा नहीं
दिल में रहने वाले मेहमान कहाँ गए -
गिनता है जिन्हें, निरा सामानों में
कितने महफूज हैं,वो आशियानों में -
दर बदर हो गए जिन्हें जीवन कहते
रहते हैं निराशे खुले आसमानों में -

किसी दर्द में कभी हमदर्द नहीं होया
जो होया उसे गिनते हैं दीवानों में -
अपने प्यार को दिल में जिंदा रखते
वो मोहताज नहीं महलों या मकानों में -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

निषेचित होता है प्रभात ..

निषेचित होता है प्रभात 
तमस के गर्भ में-
राजीव आकार पाता है 
कलुष कीच के गर्त में -
ज्योत्सना अभिसरित होती है 
निहारिका के अंतस्थल से -
क्रांतियाँ कोख पाती हैं 
निशिद्धता दमन के संघर्ष में -
कभी पीड़ा नैसर्गिक होती नहीं 
सृजित होती है उत्कर्ष में -
उदय वीर सिंह