शनिवार, 31 मई 2014

पीर पिघलती है -


आँखों  का  अंजन धुलता है 
जब  पर्वत पीर पिघलती है -
शब्द  मूक  विरमित   होते 
दुर्दिन की घटा जब घिरती है -

पावस - हीन  सरिता  उफनी 
शिखर  -संवेदन   कहती  है -
रिस रिस कर विप्लव आसव  
विक्षोभ  कलश  को भरती है- 

संशय का  प्रतिनिधि  दारुण 
हिय  कोष्ठ प्रबलता कूट भरे 
आरत मन  की भाव निराशा
विष  बूँद- बूँद उर  ढलती है- 
  
पीत  पात  तरुवर तज  जाते  
हरित  पात  की  छाँव  भली  
कोकिल कूक सदा मन मोदित   
पग - पथिक पंथ  को जीती है -

सत्य निषेचन ,प्रखर विवेचन 
संवाद  मौन का  अभिनन्दन 
अनावरण  हो प्रज्ञा  पट  का 
हो  सेतु  हृदय  का  संवेदन-

छूटे अनुबंध ,भरे न भरे पल 
तमस  गीत   का  लोपन हो 
हँसी  कुंज  आलोक मुखर हो 
हो मौन शिखा सादर जलती है-

                  - उदय वीर सिंह   



बुधवार, 28 मई 2014

अग्रसर हो उठी सदी ....


अग्रसर हो उठी सदी 

प्यासी उन्मादी आग की नदी, 
जिसके अंतस में विद्र्पता 
दम्भ, अहंकार, असमानता 
विचारों का गहन सूनापन .....
शंखनाद !
अहमस्मि अहमस्मि ...
पाशविक प्राचीरों से घिरा क्षितिज 
सिमित आसमान, 
मनुष्यता से कितना अनजान ,
सुख- सम्मान का अवसान 
पीड़ा का उन्वान ,
शायद निकृष्टतम अवस्था की ओर
अभिसरित  कदम , 
जहाँ सिर्फ अन्याय की बेड़ियां हैं ,
हिमालय सी प्रतिबंधों की दीवारें 
खोखले तथ्यहीन आदर्शों के नीड़
निचे सुलगती दमन की अंगीठी .....
पुनर्जीवित होगी कायरता 
निर्ममता ,हठता 
स्थापित होंगे वे मूल्य 
जिससे अभिशप्त होती है 
मनुष्यता .....|

                         उदय वीर सिंह 



  








  





सोमवार, 26 मई 2014

मशविरा दे रहे हैं

फूलों की बस्ती में काँटों की महफ़िल
हुस्न को इश्क़ का मशविरा दे रहे हैं -

फुटपाथ  हासिल  था  मरने से पहले
बाद मरने  के  अब मकबरा दे रहे हैं -

खुदगर्ज   का   कैसा  अंदाज  आला
हुनरमंद  को  सिरफिरा  कह  रहे हैं -

निकले  मोती  पलक  से मजबूर  हो
कैसे  नादार को मसखरा  कह रहे हैं -

बैठे  होने  को  नीलाम जिस छाँव में
दर्दे -बाजार  को आसरा  कह  रहे हैं -

रौशनी में गवारा एक  कदम भी नहीं
अंधेरों के  आशिक़ अप्सरा  कह रहे हैं -

                             उदय वीर सिंह












शुक्रवार, 23 मई 2014

बुलबुलों के आशियाने


बुलबुलों के आशियाने  
वो हमें देते रहे - 
बैसाखियों  के रहगुजर  हो 
वो हमें कहते रहे  
सहरा में उनके बहता पानी  
अश्क हम पीते रहे -
कुछ कम लिखी थी बदनसीबी 
यार बन लिखते रहे -
यारा प्यास उनकी खून की है 
जाम बन ढलते रहे -

                         उदय वीर सिंह 

सोमवार, 19 मई 2014

क्या गीत प्रेम के गुम हुए -

कानों   में   क्रंदन   स्वर  क्यों  हैं
क्या   गीत  , प्रेम   के   गुम   हुए -
वीभत्स    शब्द   हैं   अधर   सजे
क्या मधु  स्वर  व्यंजन कम हुए -

क्या संध्या, प्रभात  की सन्धियां 
अशक्त   टूट    कर   बिखर  गयीं 
या अचला अम्बर के अनुबंध बंध
ढीले   हुए   या   अति   अक्षम  हुए -

अधरों  पर  हाला ,  हस्त ,  शस्त्र 
आतंक    नियामक   विष   वमन 
विद्वेष   दुराग्रह  मानस  मलीन
पथ    मानवता    के   अर्पण   हुए  


                   - उदय  वीर सिंह 



रविवार, 18 मई 2014

कोई गिला नहीं -


बंद कर दे मेरे मुकद्दर को किसी  ताबूत में
कोई गिला नहीं -
कर दे सारी कायनात का दोजख मेरे नाम
कोई गिला नहीं -
छीन ले हंसी मेरे ख्वाब मेरी अदबी सल्तनत
कोई गिला नहीं -
मंसूख हो मेरी ,दौर हमनवा हो तूंती की आवाज का
मुझे कोई गिला नहीं -

                                                 - उदय  वीर सिंह 






शनिवार, 17 मई 2014

पीर थोड़ा मांगना -


बह चली सरिता का पावन
नीर थोड़ा मांगना -
हो  कराहती आवाज तन्हां
पीर थोड़ा मांगना -
काटी मुफलिसी में उम्र सारी
तकदीर थोड़ा मांगना -
दुआ ताउम्र मांगी अपने लिये
थोड़ा मजलूम खातिर मांगना

                               -  उदय वीर  सिंह 







बुधवार, 14 मई 2014

आग अपनी न सही


हमें  सुनो सुनो ,उनको तो तुम्हें सुनना होगा
आग अपनी    सही ,किसी की जलना होगा -

खुरदुरी जमीं  के  कदम   ऐसे  अजनवी क्यों हैं ,
सड़क  आतिशी की  है, तो हमसफ़र बनना होगा -

दम निकलता है चलने में , साथ जमाना जज्बा
उनको तेरी  जरुरत  है गुरबती  में  साथ  चलना होगा-

अगर ली है इंसनिायत की हलफ ,माना खता हुई ,
भरी   इजलास  इंसान को इंसान  ही कहना होगा

                                             


                                              






बुधवार, 7 मई 2014

शराफत की पहचान होगी -



अगर  ले बुनोगे मोहब्बत के धागे
रेशम सी चादर मेहरबान होगी -

लिखे फलसफ़े हैं मोहब्बत के दामन
खुशियों की दुनियां परवान होगी -

गुलशन अगर गुल- गुलाबों का होगा
शराफत की दुनियां से पहचान होगी -

दुआ मांगते हो जब गैरों की रब से
तेरे दर दुआओं की बरसात होगी -

                                  -  उदय वीर सिंह

                                        




रविवार, 4 मई 2014

मुजरिम हैं पेट के


इन्सानों की जमात में हम हैं, नहीं मालूम
बचपन इतिहास ,किताबें ख्वाब हो गयीं ,
मुजरिम हुए पेट के,अब कचरा ही जिंदगी है -

                                 - उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 2 मई 2014

ताश का शहर देखा-


रेत  की   दीवार  का घर देखा 
ताश  के पत्तों का शहर देखा- 

पत्थर घरों में रहने वालों का  
तूफान से बेहिसाब  डर देखा -

सहन में ठूंठ हुए तंगदिली से
घरों  में बनावटी  शजर देखा-

बनाये झूठे  दस्तावेज कितने 
कलम के इर्दगिर्द खंजर देखा -

जो दिल में आया कहा वही उदय 
न   गजल   देखी   न  बहर देखा-

                          -  उदय वीर सिंह