सौम्य भारत में सोमालिया रहता है ,
ओढ़ता,पहनता, बिछाता है दर्द ,सहता है -
मजहब की ऊँची दीवारों में
नफ़रत का शहर कायम -
इन्शान सी शक्ल तो दिखती है ,
जिगर में जहर कायम-
दाग इतने की दोज़ख भी शर्माए,
कुफ्र का रिजवान दुसरे को काफ़िर कहता है -
सदियों से रोशनी को मोहताज
छिपता है छिपाने को लाज-
जंगल पहाड़ शरण स्थली उसकी ,
दूर हैकितनी विकास की आवाज -
ब्रह्माण्ड के किसी कोने में नहीं स्वदेश में
आदिम स्वरुप में रहने की विवसता है-
पैर रखे है सदियों से जहाँ ,
वह ज़मीन भी किसी सेठ के नाम -
जानवर तो संरक्षित किये जाते हैं
इन्सान,बहसी माफ़ीयाओं के नाम-
जानवरों की तरह शिकार है जर ज़मीन आबरू ,
सूखा पत्ता भी नहीं मेरा कहता है -
हर बाद का प्रणेता अवसाद में ,
तलाश इश्वर की इश्वर बन गया
भूखा व भरे पेट का फर्क नहीं मालूम ,
दैन्यता की भूमि में बैमनस्यता बो गया
दे अंतहीन बेड़ियाँ ,यातना तिरस्कार की,
नासमझ ,मजबूर को नासमझ कहता है-
प्रज्ञा शुचिता का दंभ इतना कि,
न बन पाया इन्सान अब तक -
कुत्तों कीतरह इलाका बनाये लड़ रहा ,
बंटा इर्ष्या मेंजीवन से शमसान तक -
मनुष्यता की लौ जले भारतीयता के दीप से
सर्वे भवन्ति सुखिनः का भाव रचता है -
फिर भी -
एक इन्सान एक इन्सान से
कितना दूर रहता है ----
उदय वीर सिंह
29/03/2012
ओढ़ता,पहनता, बिछाता है दर्द ,सहता है -
मजहब की ऊँची दीवारों में
नफ़रत का शहर कायम -
इन्शान सी शक्ल तो दिखती है ,
जिगर में जहर कायम-
दाग इतने की दोज़ख भी शर्माए,
कुफ्र का रिजवान दुसरे को काफ़िर कहता है -
सदियों से रोशनी को मोहताज
छिपता है छिपाने को लाज-
जंगल पहाड़ शरण स्थली उसकी ,
दूर हैकितनी विकास की आवाज -
ब्रह्माण्ड के किसी कोने में नहीं स्वदेश में
आदिम स्वरुप में रहने की विवसता है-
पैर रखे है सदियों से जहाँ ,
वह ज़मीन भी किसी सेठ के नाम -
जानवर तो संरक्षित किये जाते हैं
इन्सान,बहसी माफ़ीयाओं के नाम-
जानवरों की तरह शिकार है जर ज़मीन आबरू ,
सूखा पत्ता भी नहीं मेरा कहता है -
हर बाद का प्रणेता अवसाद में ,
तलाश इश्वर की इश्वर बन गया
भूखा व भरे पेट का फर्क नहीं मालूम ,
दैन्यता की भूमि में बैमनस्यता बो गया
दे अंतहीन बेड़ियाँ ,यातना तिरस्कार की,
नासमझ ,मजबूर को नासमझ कहता है-
प्रज्ञा शुचिता का दंभ इतना कि,
न बन पाया इन्सान अब तक -
कुत्तों कीतरह इलाका बनाये लड़ रहा ,
बंटा इर्ष्या मेंजीवन से शमसान तक -
मनुष्यता की लौ जले भारतीयता के दीप से
सर्वे भवन्ति सुखिनः का भाव रचता है -
फिर भी -
एक इन्सान एक इन्सान से
कितना दूर रहता है ----
उदय वीर सिंह
29/03/2012