मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

पंच पूछते हैं कि कहीं कोई पंच देखा है ...


ऋतुएँ निष्प्रभावी हैं सदा बसंत देखा है 
जहाँ सत्ता की चाभी है वहीँ मकरंद देखा है 
सत्ता सिन्हासन की सरिता कुलबुलाती है 
वहीँ सत्ता सियारों का सियासी कुम्भ देखा है -

शीशमहल में स्वर्ण कलश के नीर पीते हैं
दबाये कांख में सत्ता रोते लोकतंत्र देखा है
जिन्हें चिंता बहुत है देश के लाचार जनता की
खूनी दागियों अपराधियों से अनुवंध देखा है -

आरम्भ होती है जहाँ से सर्वहारा की डगर
खड़ी दीवार मोटी सी लगा प्रतिबन्ध देखा है
भूख सिसकती वेदना उखड़ती स्वांस पूछे है
ढोंगी वंचकों के बीच कोई संत देखा है -

कृशकाय तन ,घायल मनस माँ भारती के पाँव
खिंचते हैं चीर ,मूल्य निर्वस्त्र होते चौक पर
हतभाग्य है या चिर सुन्य-काल प्रिय देश का
अब पंच पूछते हैं कि कहीं कोई पंच देखा है -

उदय वीर सिंह






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