ऋण संज्ञा है या सर्वनाम ,
विशेषण है या अलंकार
उलझ जाता हूँ ,इनके प्रयोग में ...
माँ कहा करती ----
" कर्ज है कि--उतरता नहीं "
धर्म ,समाज ,अर्थ , ऋण का बोझ ,
बढ़ता रहा है -"-सवा सेर गेहूं की तरह "
बैठ जाता है हज़रते दाग की तरह
जाने का नाम नहीं ,
जन्मा नहीं की ,मीटर गतिमान ,
मृत्योपरांत , चलायमान
कुछ परोक्ष , कुछ अपरोक्ष -----
मात्री ऋण ,पितृ ऋण ,गुरु ऋण ,संतान ऋण ,सत्ता ऋण ,
ये नैतिक ऋण चुकाए बिन
मोक्ष नहीं , निहितार्थ है जिव का , जीवन का /
उपरोक्त ऋण को चुकाने में ,
नए अनेक ऋण जुड़ते गए ,अनन्य भाव से --
व्यवसाय ऋण ,कृषि ऋण पूंजी निहितार्थ ,
आवास ऋण ,शिक्षा ऋण कार ऋण ,त्यौहार ऋण ,
व्यक्तिगत ऋण ,आवश्यक होगया
जीवन निहितार्थ /
तकाजा था ,परिस्थितियों का ,प्रतिष्ठा का ,नाम का /
सब ऋण लिया ,फिर भी तंगी रह गयी --
गोल्ड लोन लेना पड़ा ,दहेज़ ऋण चुकाना था /
बीमार हुआ शारीर ,चिकित्सा ऋण लेना पड़ा ,
जीवन पर ----
कहीं ,लियन ,कहीं हिपोथिकेसन ,मोर्टगेज ,
अंकित हो गया है ,--
रोम -रोम ऋणी है
पहले प्रभु का था ,
* अब बैंक का है ----
आय आई नहीं की , गयी ,
किश्तों में
जीवन दीप , ऋण के तेल से जला रहा हूँ ,
क़र्ज़ इतने की -----
किश्तों में ,चूका रहा हूँ /
मैं अकेला नहीं शुकून है
मेरा देश भी है मेरे साथ ,
आकंठ डूबा हुआ ,
कर्ज में -----
दोनों चूका रहे हैं
किश्तों में ----
13 टिप्पणियां:
उदय जी आपने तो चंद पंक्तियों में ही हम पर ऋण चढा दिया.अब आपको क्या जबाब देकर उतारूँ इसे.
वाह ....
शुभ प्रभात भाई जी !
वाकई.....
बोझ धरती पर है इतना यारो
क़र्ज़ इतना कि उतरता ही नहीं
हम भी ऐसे कि दबे बैठे हैं
लोग ऐसे कि मानते ही नहीं !
शुभकामनायें भाई जी !
बहुत विचारणीय रचना
किश्तों में
जीवन दीप , ऋण के तेल से जला रहा हूँ ,
क़र्ज़ इतने की -----
किश्तों में ,चूका रहा हूँ /
बहुत खूब! आज मध्यम वर्ग का यही हाल है..बहुत सार्थक और प्रभावी प्रस्तुति. आभार
कर्ज किस्तों में
ऋण संज्ञा है या सर्वनाम ,
विशेषण है या अलंकार
उलझ जाता हूँ ,इनके प्रयोग में ...
माँ कहा करती ----
" कर्ज है कि--उतरता नहीं "
धर्म ,समाज ,अर्थ , ऋण का बोझ ,
बढ़ता रहा है -"-सवा सेर गेहूं की तरह "
बहुत सुंदर कविता भाई उदयवीर जी आपकी सोच बहुत व्यापक है बधाई और शुभकामनाएं |
कर्ज किस्तों में
ऋण संज्ञा है या सर्वनाम ,
विशेषण है या अलंकार
उलझ जाता हूँ ,इनके प्रयोग में ...
माँ कहा करती ----
" कर्ज है कि--उतरता नहीं "
धर्म ,समाज ,अर्थ , ऋण का बोझ ,
बढ़ता रहा है -"-सवा सेर गेहूं की तरह "
बहुत सुंदर कविता भाई उदयवीर जी आपकी सोच बहुत व्यापक है बधाई और शुभकामनाएं |
धर्म ,समाज ,अर्थ , ऋण का बोझ ,
बढ़ता रहा है -"-सवा सेर गेहूं की तरह "
प्रभावी प्रस्तुति
कितनी आसानी से कह दी आपने इस जीवन की सचाई को आपकी लेखनी को नमन और आपको बधाई...
अनेक प्रकार का ऋण है हम पर । कहीं ईश्वर का , कहीं मातृ ऋण , कहीं पितृ ऋण , कहीं स्नेह का ऋण.....
मैं भी आपके साथ हूँ। बस चुकाए जा रही हूँ ...किश्तों में...
आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
बहुत खूब
मोहसिन रिक्शावाला
आज कल व्यस्त हू -- I'm so busy now a days-रिमझिम
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ.. आपकी रचनाएँ दिल पर प्रभाव छोड़ती हैं... सोचने पर मजबूर करती हैं..
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