क्या खो गए हैं हम ,क्या भूल आये हैं ,
काँटों की गलियां हैं ,अपने पराये हैं -
सांसों की आहट में निर्मल सी प्रीत थी ,
हर जीत , हार थी, हर हार जीत थी-
नातों को दूर हम कहीं छोड़ आये हैं-
ममता का आँचल माँ की बाँहों में लोरियां ,
मुक्त हर बला से पकडे बापू की उंगलियाँ -
दानवीरों से वंधन कैसे बेदर्द तोड़ आये हैं -
बोझ बन गए है बोझ ढ़ोते हम रकीबों के ,
उम्रें गुजारी दुआ देते अपने होठों से-
उत्सव में डूबे हम,उन्हें वृद्धाआश्रम दे आये हैं-
डोली या अर्थी हो , कंधे तो देने हैं ,
दिया है समझ के अपना,गरल भी तो पीने हैं-
लबो पर हंसी है ,पीछे खंजर छुपाये हैं
केवल -
शराफत का चोला है , शर्म भूल आये हैं -
उदय वीर सिंह .
24-02 -2012
काँटों की गलियां हैं ,अपने पराये हैं -
सांसों की आहट में निर्मल सी प्रीत थी ,
हर जीत , हार थी, हर हार जीत थी-
नातों को दूर हम कहीं छोड़ आये हैं-
ममता का आँचल माँ की बाँहों में लोरियां ,
मुक्त हर बला से पकडे बापू की उंगलियाँ -
दानवीरों से वंधन कैसे बेदर्द तोड़ आये हैं -
बोझ बन गए है बोझ ढ़ोते हम रकीबों के ,
उम्रें गुजारी दुआ देते अपने होठों से-
उत्सव में डूबे हम,उन्हें वृद्धाआश्रम दे आये हैं-
डोली या अर्थी हो , कंधे तो देने हैं ,
दिया है समझ के अपना,गरल भी तो पीने हैं-
लबो पर हंसी है ,पीछे खंजर छुपाये हैं
केवल -
शराफत का चोला है , शर्म भूल आये हैं -
उदय वीर सिंह .
24-02 -2012
14 टिप्पणियां:
लबो पर हंसी है ,पीछे खंजर छुपाये हैं....
एक दर्द झलक रहा है आपकी इस रचना में ....
मगर सच्चाई यही है और हमें झेलना है भाई जी !
सुन्दर सृजन, सुन्दर भावाभिव्यक्ति, बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर पधार कर अपनी अमूल्य राय प्रदान करें, आभारी होऊंगा.
बेहतरीन प्रस्तुति।
डोली या अर्थी हो , कंधे तो देने हैं ,
दिया है समझ के अपना,गरल भी तो पीने हैं-
लबो पर हंसी है ,पीछे खंजर छुपाये हैं
....बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...आभार
ममता का आँचल माँ की बाँहों में लोरियां ,
मुक्त हार बला से पकडे बापू की उंगलियाँ -
दानवीरों से वंधन कैसे बेदर्द तोड़ आये हैं -
आज के परिवेश की सच्चाई .... सुंदर प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
केवल -
शराफत का चोला है , शर्म भूल आये हैं -
चुभता हुआ सालता हुआ व्यंग्य .
ममता का आँचल माँ की बाँहों में लोरियां ,
मुक्त हर बला से पकडे बापू की उंगलियाँ -
मर्मस्पर्शी सुंदर प्रस्तुति
आभार !
सुन्दर रचना , बधाई ,
सादर
बहुत गहरी प्रस्तुति...
सांसों की आहट में निर्मल सी प्रीत थी ,
हर जीत , हार थी, हर हार जीत थी-
नातों को दूर हम कहीं छोड़ आये हैं-
WAH KYA KHOOB LIKHA HAI APNE ....SACHHAI SE ROOBRU KARATI YAH PRAVISHTI BEHAD ACHHI LAGI ...ABHAR.
केवल शराफत का चोला है शर्म भूल आये हैं -
उदय जी,..सच्चाई यही है आपस के प्रेम सदभाव को भूल कर अपने लोग पराये हो गए,
दिल पर चोट करती रचना,....
आपका फालोवर बन रहा हूँ.....
भाई उदय जी सत श्री अकाल |व्यस्तता के कारण बहुत दिन बाद आ रहा हूँ माफ़ी चाहूँगा |अच्छी कविता
मानव आज मानव बनने में, एकदम नाकाम है,
इसलिए इस धरा पर, मानव बहुत ही बदनाम है.
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