शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

तौफीक

चाहे  गाये  जमीं,  चाहे  गाये  गगन 
गाने  वाले  नहीं  हम  तेरी  गीत को -


राहे  उल्फत  सँवरती हो जब हार से ,
देना ठोकर मुनासिब है हर जीत को-


दर्द  बनने  लगे आशिक़ी हम सफ़र  ,
तोड़  देना  मुकम्मल है उस प्रीत को -


साज  बजते  रहे  अपनी  रौनायियाँ ,
क्या  मुहब्बत है बहरों को, संगीत से -


सिर  झुकाते  रहे , कट  न  जाये कहीं ,
गैरे-गुरबत से अच्छा मांग लें मौत को -


                                उदय वीर सिंह .





9 टिप्‍पणियां:

Rajesh Kumari ने कहा…

bahut umda ghazal.....pahle sher me teri geet ko ki jagah tere geet ko karen to uchit hoga.
lajabaab ghazal.

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

अच्छी भाव-भंगिमा

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, तोड़ बन्धन, मुक्त उड़ जा...

कुमार राधारमण ने कहा…

बुरा हाल है आशिकी में पड़े लोगों का!

Sunil Kumar ने कहा…

सिर झुकाते रहे , कट न जाये कहीं ,
गैरे-गुरबत से अच्छा मांग लें मौत को -
बहुत अच्छा है जबरदस्त वाह वाह

udaya veer singh ने कहा…

नमस्कार राजकुमारी जी /शुक्रिया आप के सुझाव का ,आदर से आत्मसात करते हुए ,शाब्दिक भाव को स्पष्ट करना चाहूँगा - तथ्यगत शब्द-भाव, एकवचन व स्त्रीलिंग भाव में है / एवं समवेत श्वर को बिलगाव देते हुए आरोहित है / माफ़ी चाहेंगे अगर स्पष्ट न कर पाया तो / आभार जी /

Shanti Garg ने कहा…

बहुत बेहतरीन....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

रचना दीक्षित ने कहा…

सुंदर गज़ल प्रेम रस में सरावोर.

अनुपमा पाठक ने कहा…

राहे उल्फत सँवरती हो जब हार से ,
देना ठोकर मुनासिब है हर जीत को-
वाह!