विकृतियों को प्यार कहते हो
नंगे को समझदार कहते हो -
आत्म-विस्वास से बहुत दूर कम्पित
अवसादी दिन को त्यौहार कहते हो -
आत्म-विस्वास से बहुत दूर कम्पित
अवसादी दिन को त्यौहार कहते हो -
हृदय की क्यारियों में प्यार पल्लवित न हुआ
दो पल के जुनूनी हनक को संस्कार कहते हो -
टूट जाता है पछुआ पवन के हलके झोंकों से
सरकंडे को सागर में किश्ती की पतवार कहते हो-
संत कबीर ने कहा कभी प्रेम हाट में बिकता नहीं
अपने पर कम दूसरों पर ज्यादा एतबार करते हो-
प्यार अंतहीन सीमाविहीन शर्तहीन प्राण -वायु है
जो बहता है रगों में उसे तारीख में शुमार करते हो-
फूल और कसमों से मक्कारी की बू ही आती है
हम उसे सौदाई कहते हैं तुम वफादार कहते हो -
- उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-02-2014) को "पथिक गलत न था " (चर्चा मंच 1526) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सशक्त अभिव्यक्ति..
@फूल और कसमों से मक्कारी की बू ही आती है
वाह भाई जी , बधाई !!
तमाम रबतों-राब्ता मालो-टाल पे टीके हैं..,
तेरी जमीं जरो-जागीर है तुझे रिश्तेदार कहते हैं.....
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