शनिवार, 12 नवंबर 2022

दिन उधारों के आ गए..


 




..........

✍️

जो ख़्वाब में नहीं थे इश्तिहारों से आ गए 

हमदर्दी के जले ज़ख्म बाजारों से आ गए।

मेरी कमनसीबी को कल सुना रहे थे अपने

आज देखा सुर्खियों में अखबारों से आ गए।

ख़ारों ने जमा रखी हैं  जड़ें  बसंत  के गांव 

पतझड़ के अफसाने  बहारों  से आ  गए ।

कितना  सूनापन  है मेलों में , सबब क्या है

सरगोशियां  हैं कि दिन  उधारों  के आ गए।

अर्थ का गुमनाम हो जाना विस्मित नहीं करता

तालियों के कीर्तिमान शब्दालंकारों से आ गए।

उदय वीर सिंह।

कोई टिप्पणी नहीं: