चाहे गाये जमीं, चाहे गाये गगन
गाने वाले नहीं हम तेरी गीत को -
राहे उल्फत सँवरती हो जब हार से ,
देना ठोकर मुनासिब है हर जीत को-
दर्द बनने लगे आशिक़ी हम सफ़र ,
तोड़ देना मुकम्मल है उस प्रीत को -
साज बजते रहे अपनी रौनायियाँ ,
क्या मुहब्बत है बहरों को, संगीत से -
सिर झुकाते रहे , कट न जाये कहीं ,
गैरे-गुरबत से अच्छा मांग लें मौत को -
उदय वीर सिंह .
गाने वाले नहीं हम तेरी गीत को -
राहे उल्फत सँवरती हो जब हार से ,
देना ठोकर मुनासिब है हर जीत को-
दर्द बनने लगे आशिक़ी हम सफ़र ,
तोड़ देना मुकम्मल है उस प्रीत को -
साज बजते रहे अपनी रौनायियाँ ,
क्या मुहब्बत है बहरों को, संगीत से -
सिर झुकाते रहे , कट न जाये कहीं ,
गैरे-गुरबत से अच्छा मांग लें मौत को -
उदय वीर सिंह .
9 टिप्पणियां:
bahut umda ghazal.....pahle sher me teri geet ko ki jagah tere geet ko karen to uchit hoga.
lajabaab ghazal.
अच्छी भाव-भंगिमा
वाह, तोड़ बन्धन, मुक्त उड़ जा...
बुरा हाल है आशिकी में पड़े लोगों का!
सिर झुकाते रहे , कट न जाये कहीं ,
गैरे-गुरबत से अच्छा मांग लें मौत को -
बहुत अच्छा है जबरदस्त वाह वाह
नमस्कार राजकुमारी जी /शुक्रिया आप के सुझाव का ,आदर से आत्मसात करते हुए ,शाब्दिक भाव को स्पष्ट करना चाहूँगा - तथ्यगत शब्द-भाव, एकवचन व स्त्रीलिंग भाव में है / एवं समवेत श्वर को बिलगाव देते हुए आरोहित है / माफ़ी चाहेंगे अगर स्पष्ट न कर पाया तो / आभार जी /
बहुत बेहतरीन....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
सुंदर गज़ल प्रेम रस में सरावोर.
राहे उल्फत सँवरती हो जब हार से ,
देना ठोकर मुनासिब है हर जीत को-
वाह!
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