मत पुछो वीर कि बुरा लगता है
सावन के अंधे को सदा हरा लगता है
सावन के अंधे को सदा हरा लगता है
चाँद की बिसात क्या सूरज उगाये मैंने
धरती ही नहीं आसमान भी डरा लगता है
जिद है या खुद को बहलाने का प्रयास
झूठ भी कितना खरा लगता है -
सत्ता सियासत का बाजार बे मुरौअत
बेटा भी वलि का बकरा लगता है -
खामोश हो गए ओढ़े कफन ए तिरंगा
रेशमी राजनीति को मसखरा लगता है -
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-10-2016) के चर्चा मंच "करवा चौथ की फिर राम-राम" {चर्चा अंक- 2502} पर भी होगी!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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