शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

नारी क्यों व्यसना है ....



पूजा के पंडालों मे कितनी श्रद्धा आती है
सौंदर्य रूप में नारी पुरुष तत्व को भाती है-
संसद- भवन ,घर हो ,या कोख ,राजपथ
सत्ता मानस से स्वीकृत नहीं हो पाती है-

मंचस्थ ढोंगी ,शक्ति प्रलाप तो करता है
उद्धृत करता ग्रंथ नारी सृजना कहलाती है -
बाज़ारों बारों महलों में जलसों में कितनी
अस्मिता नारी की कैसे विकृत की जाती है-

पल- भर में सम्बन्धों का हर बंध टूटता
नारी स्त्रियोचित स्व- भाव जब अपनाती है
पुरुष मंच से घोषित होती , देवी से पतिता
तन मन दोनों रौंदे जाते पीर नहीं कह पाती है -
- उदय वीर सिंह

4 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

एक मानसिक सोच जो घर किये बैठे हो वह नारी को कैसे उन्नति करते देख सकते हैं? दु:खद पहलु है की पूजा पंडालों की श्रद्धा वहीँ तक सीमित रह जाती है ...
सार्थक रचना

कविता रावत ने कहा…

एक मानसिक सोच जो घर किये बैठे हो वह नारी को कैसे उन्नति करते देख सकते हैं? दु:खद पहलु है की पूजा पंडालों की श्रद्धा वहीँ तक सीमित रह जाती है ...
सार्थक रचना

Unknown ने कहा…

Bilkul sahi kaha naari sab kuch karti hai lekin fir bhi naari triskrit rahti hai ... Kahin kam kahin jyada .... Kahin puri tarah se ....umdaa rachna !!

virendra sharma ने कहा…

सशक्त प्रस्तुति .