रेशम में लिपटे काँटों को
हम गुलाब कहते रहे -
नीव खोदी ही नहीं गयी मितरां
मकान बनते रहे-
जो बन न सका जुगुनू भी,रात का
उसे माहताब कहते रहे -
जो कर गया टुकड़ों में वतन
सिरताज कहते रहे -
शुमार कर दिया आतंकवादियों में जिनको
वो इनकलाब कहते रहे -
झूल गए फांसी पर मर्द हंसते -हंसते
ना-मर्द वाह- वाह कहते रहे -
सारा जीवन हिंसा में ही गुजर गया
वो अहिंसा का पाठ करते रहे-
सोचा नहीं अवाम की दर्दो आवाज क्या है
सौदाई कारोबार करते रहे-
- उदय वीर सिंह
हम गुलाब कहते रहे -
नीव खोदी ही नहीं गयी मितरां
मकान बनते रहे-
जो बन न सका जुगुनू भी,रात का
उसे माहताब कहते रहे -
जो कर गया टुकड़ों में वतन
सिरताज कहते रहे -
शुमार कर दिया आतंकवादियों में जिनको
वो इनकलाब कहते रहे -
झूल गए फांसी पर मर्द हंसते -हंसते
ना-मर्द वाह- वाह कहते रहे -
सारा जीवन हिंसा में ही गुजर गया
वो अहिंसा का पाठ करते रहे-
सोचा नहीं अवाम की दर्दो आवाज क्या है
सौदाई कारोबार करते रहे-
- उदय वीर सिंह
7 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूब!
आज का यथार्थ ...गहन रचना ...
आज का यथार्थ ...गहन रचना ...
आपकी रचना में कड़वा सच सामने आ गया है।
अजी क्या बात है क्या अंदाज़ है आपका। क्या ज़ज्बा और मर्तबा है आपका और रचना के तेवर का।
रोचक विस्तार विज्ञान का वैदिक आलोक में।
बहुत बढ़िया
लेटेस्ट पोस्ट नव दुर्गा
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