रविवार, 30 अगस्त 2015

शहर बंजर हो जाए

संस्कारों के बीज  तो बोये गए बहुत 
संस्कृति बेअसर हो जाए तो क्या करें -

नजर खंजर हो जाए, फिजाँ  तूफान
दरिया समंदर हो जाए तो क्या करें -

मांगी दुआ थी हमने अमन बसाने की 
जब शहर बंजर हो जाए तो क्या करें -

पत्थरों के मकान में दिल पत्थर के हुए
दर सियासी मंजर हो जाए तो क्या करें -

खून का रंग सफ़ेद हो गया है रगों में
विस्वास नस्तर हो जाए तो क्या करें -

रहे अर्थियों से लेकर अर्चना तक भिज्ञ
जब प्रसून बिस्तर हो जाए तो क्या करें -

उदय वीर सिंह

शनिवार, 29 अगस्त 2015

फूलों के नाम पर

पानी की पीठ पर बनते निशान कब
बालू की भीत पर बनते  मकान कब -
अदब है शराफत लियाकत है जिंदगी
छीना मुकाम को ,शाहे तूफान कब -
आँखों में पानी है दिल में मोहब्बत है
सहरा में जिंदगी लगती वीरान कब -
उम्मीदो -यकीन पर बसते, बसाते हैं
धरती गई है कब गया आसमान कब -
हाथों से रुखसत फूल कब हो गए हैं
पत्थर उछालते हैं फूलों  के नाम पर -

उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

शाखों -सतह देता है ....

कर अदब से सलाम विचारों को उदय
जो हर दौर में ठहरने की जगह देता है -
वजूद तेरा भी है अगर जर्रा ही क्यों न हो
मीरो पीर बनने की कामिल वजह देता है -
छोड़ जाएंगे पुराने कपड़ों की तरह राही
वो हलफ बन कर मंजिलों फतह देता है -
जब तक दम है परों में है परवाज़ कायम
वापसी में आखिर वो शाखों-सतह देता है -

उदय वीर सिंह

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

मुस्कराएगी कायनात तुमसे ---

आएगी निकल के मूरत जो संग तराशोगे -
आएगी चल मुकद्दर जो दर बना लोगे -
गुजर जाएंगे गमों शाम पल में 
मीत कोई गीत गुनगुना दोगे -
मुस्कराएगी कायनात तुमसे 
प्रीत जब मुस्करा दोगे -
नजर न आया हुनर दिखाई देगा 
पर्दा जब उठा दोगे -
प्यार को दिल में सँजोये रखना 
माँगेगा कल जमाना  तो क्या दोगे -
पाओगे मुक़द्दस दुआएं दिल की ,
अगर दुआ दोगे -

उदय वीर सिंह 


रविवार, 23 अगस्त 2015

समस्त दंश जारे हैं -

जाने न जाने वीथियाँ ,कब तक हमारे साथ 
आँधियों की सांझ न जाने दीप कैसे उजारे हैं 
कब तक चलेंगे पाँव विश्राम भी अनुमन्य है 
पथरीले पथों में उर्मियां ,ज्योत्सना न तारे हैं -

श्रिंखला ,विषाद  की  प्रतीक्षावनत नहीं रही 
हर्ष की अनुभूतियों में दिवस दुख के विसारे हैं 
हतभाग्य का प्रलेख संकलित मिला तो क्या 
हृदय पटल संचित पीड़ा के भग्नावशेष सारे हैं -

पूछता अंशुमान तज संवेदना की छांव शीतल 
पथ प्रशस्त कर सकोगे तेरे दृष्टि, गात हारे हैं 
कर दी निराश्रित वेदना संकल्प का अभिषेक कर 
आत्मबल के अग्नि कुंड में समस्त दंश जारे हैं -

उदय वीर सिंह 


गुरुवार, 20 अगस्त 2015

अपने गुनाहों का --

अपने गुनाहों का ,हिसाब दे न पाये हम 
उतना  ही बाकी है ,जितना  चुकाए हम -
जो भी मिला जैसे मिला करता सवाल ही 
चादर उधड़ती रही जितनी बीन पाये हम -
लक्षमन रेखाएँ टूटी कसमों के तार भी 
जीवन की खातीर मौत से निभाए हम -
वफा जो मुकर्रर खता हर बार हम करेंगे 
डूबती निगाहों को अपनी दे आए हम -
रिश्तों ने छोड़ा घन आई घनी शाम जब 
उम्मीदों का दीवा राह उनकी जलाए हम -
मोहब्बत है पाक उतनी जन्नत नहीं है 
तुमने कही न कही अपनी सुनाये हम -
सहरा या वादियाँ वो बिसरीं न वीथियाँ  
याद उतनी आयीं ,जितनी भुलाए हम -
गमों ने हमारा साथ दिल से निभाया है 
उतने ही आए आँसू जितना खिखिलाए हम 

उदय वीर सिंह 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

जब सावन सो जाता है -

जब सावन सो जाता है
मधुवन को रोना पड़ता है -
जब हाथों से औज़ार गए
तब भूखा  सोना पड़ता है -

रत कालजयी कर्तव्यों में
अपनों को खोना पड़ता है -
फूलों की चाहत में मितरा
काँटों को सहना पड़ता है -

विष की दवा विष ही होता
संग विष को ढोना पड़ता है -
दर्शन विहीन हीन मानस को
मिथकों  में जीना पड़ता है -

-उदय वीर सिंह


मंगलवार, 18 अगस्त 2015

अपनी मशालों से

वतन जल रहा है आज अपनी मशालों से
उठने लगी है आग ,मस्जिदों शिवालों से -
सिवई ,मलाई, लस्सी मिल बाँट खाये थे
क्या हुआ मिजाज थाली पूछती निवालों से -
सांझी थी होली ,ईद ,बैसाखी दीवाली थी
आज देखती हैं आँखें क्यों अनेकों सवालों से-
मादरे - वतन का पाक दामन तो एक है ,
क्यों बांटते हो प्रश्न आज मजहबी दलालों से -
खून सुर्ख एक है ,रंग - बिरंगे लिबास हैं 
इंसानियत का गीत क्यो उठा है ख़यालों से -

उदय वीर सिंह

शनिवार, 15 अगस्त 2015

राम वतन रहमान वतन है

मान वतन सम्मान वतन है
राम वतन ,रहमान वतन है 
रंग  वतन  है , राग वतन है
आन वतन है शान वतन है -

जीवन की  अक्षय - ऊर्जा है
सुबह वतन है शाम वतन है
कंगन कर ,माथे  की  बिंदी
मंदिर मस्जिद नाम वतन है -

परचम लहराये  विश्व गगन
जीवन की  पहचान  वतन  है
स्वांस स्वांस में वतन समाया
हृदय की सुंदर  गान वतन है -

राम कृष्ण गुरुओं का आँगन
देवों का ,सुंदर  धाम वतन है ,
दया ,प्रेम, करुणा  की  शाला
गीता ,ग्रंथ , कुरान  वतन  है -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

वांछित क्या है चयन कर लो ...

प्रज्ञा - परचम  अंबर लहराये
आधार स्तम्भ सृजन कर लो
जीवन -मृत्यु  अनुवंध खुले हैं
वांछित क्या है चयन कर लो -

पथ  पथरीले कंटक सज्जित
कुसुम -डार विस्थापित होगी
गंतव्य, मंचस्थ ऊंचे ठावों में
स्व अधिपत्य का प्रण कर लो -

मधुवंती का वर स्नेह होगा
दिवस देंगे शुभ-अवसर को
तप्त -ज्वाल  का वर्षण होगा
हिमवर्षण में भी गमन कर लो -


उदय वीर सिंह

रविवार, 9 अगस्त 2015

ईश्वर के बाद के ईश्वर ...

                          ईश्वर के बाद के ईश्वर -
गौर करें ! कैसा लगा होगा जब तथाकथित  म्लेच्छों ने आर्यावर्त पर अपने पाँव रखे होंगे । दसवीं शताब्दी में दरवेशों ने अपने धर्म की व्यख्या इस तथाकथित देवभूमि पर आरंभ की होगी । राजा दाहिर की पराजय ने बेशुमार शर्तों को अंगीकार किया होगा । उपरांत पृथ्वीराज चौहान की महामंडित सेना के विदेशी आक्रांताओं के समक्ष घुटने टेक देने पर । सेवा में चल रहे अछूत से किसी सैनिक का कदाचित स्पर्श हो जाने के कारण ,सैनिक द्वारा शुद्धिकरण हेतु रणभूमि छोड़ ,अधिकृत व्यक्ति से पवित्र गंगाजल वर्षण हेतु वापस आना । आत्म सम्मान ,पुत्री अस्मिता राजधर्म के संरक्षार्थ आक्रांता से गलबहियाँ, हजारों जयचदों का दर्द ।
        कैसा लगा होगा जब धर्माधिकारी द्वारा किले की बावडी के जल को लोभ या दबाव में अपवित्र घोषित किया गया होगा । पूलिंग जाति के नौनिहालों से लेकर बृद्धों तक  की नृशंश हत्या की गयी होगी ।स्त्रीलिंग जाति के साथ अमानवीय व्यवहार ही नहीं क्रूरता की सीमाएं लांघी गयी होगी । पड़ोसी मूकदर्शक बने रहे । धर्म - वेत्ताओं का अलोप हो जाना या दासता की स्वीकारोक्ति । पद- प्रतिष्ठा के लिए के लिए राज-धर्म की नई परिभाषा का सृजन ,श्रमहीन नैराश्य परजीवियों का मृत्यु की सीमा तक  लांघ जाने का आक्रोश ,राष्ट्र की निष्ठा से बहुत दूर आक्रांता -द्रोहीयों का स्वागत .......कैसा लगा होगा ।
   कैस लगा होगा वो सौहार्द जब राजा भारमल ,बीरबल , टोडरमल ,राजा मानसिंह ,अभय सिंह सरीखे  हजारों ने अपनी बेटियाँ  की डोली को कंधा दे स्वेच्छा से विधर्मियों को समर्पित किया । पीछे जम्हूरियत  ने अनुसरण किया ।
  शायद यह कोई रणनीति रही होगी या धर्म का विशेष दर्शन । यह आज भी संज्ञान में होने के बाद भी अबूझ रहस्यमई बना हुआ है । कदाचित हम अपनी कायरता को विशिष्ट शैली की संज्ञा  दे इतिश्री कर लेते हैं । जैसे किसी सुतुरमुर्ग का रेत में सिर छिपा लेना ।  
    अतिथि देव भवः की परंपरा में, अतिथि प्यारे लगे उनके आदर्श अच्छे लगे  और वे जमीन पाते  गए, फैलते गए । चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई  । उनके बल प्रयोग और बलात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, हुआ भी । परंतु ऐसा माना जाता है ये कृत्य [परिवर्तन ] स्थायी नहीं होते । अफसोश वे पुनःअपने तथाकथित आदर्श धर्म की ओर रुख नहीं किया । नहीं लौटे । निश्चित रूप से वे आज हमारे शंसय का वे कारण हैं।
   हमारी भाव प्रवरता में सर्वप्रथम जाति, द्वितीय धर्म, तृतीय  स्थान में राष्ट्र रहा, जिसका प्रभाव आज भी उसी रूप में है । कथ्य और कर्म में जमीन आसमान का फर्क ।हमारे आदर्श ,सूत्र वाक्य बन कर रह गए ,यह अंतर विषद रूप लेता गया ।
   पश्चिमोत्तर- उत्तर  भारत  में सिक्ख गुरुओं का अप्रतिम निष्ठा के साथ राष्ट्र प्रेमियों ने स्वागत किया । परोक्ष -अपरोक्ष रूप में अपना सर्वस्व न्योछावर किया । वहीं द्रोहियों ने विधर्मियों का खुल कर साथ और समर्थन दिया । ज़्यादातर वही आज हिन्दू धर्म के खास पैरोकार दिखाई देते हैं ।
     धर्म का ठेकेदार जब घोषित करता है की हजार शूद्र एक गाय के बराबर होता है और वह अपने कत्थ पर कोई अफसोस नहीं करता है ,वह पैरोकारी करता है जाति आधारित धर्म का । इसके पक्ष में ईश्वर की इच्छा का सिद्धान्त बताता है ।
     शूद्र ,पशु ,नारी की अभी भी वही व्याख्या करता है जो आदिम युग में भी कदाचित नहीं हुई होगी । आज भी दस्वी शताब्दी के हालत अपना रुख कर रहे हैं तो इसका कारण क्या  है । सिक्ख धर्म इसके बिरोध में खड़ा होता है फलतः सिक्ख फूटी आँख नहीं सुहाता । मानुख की जाति सब एकै पछानिबों के  सूत्र वाक्य को सनातम धर्म  बकवास की संज्ञा देता है ।
     आखिर यक्ष प्रश्न खड़ा होता है ,हिन्दू धर्म  को  मनुष्य को मनुष्य मानने पर समस्या क्या है ?
धर्म को जातियों मे क्यों विभक्त रखना चाहता है । कालांतर से इसका दंश यह राष्ट्र सहता आया है
अभिशप्त है सहने को ।  इसकी असहनशीलता का शिकार यह प्रायदीप अतीत काल से है । जयचंदों को पैदा किया , विधर्मियों को पाँव पसारने का अवसर दिया । झूठ ,अवैज्ञानिक ,अप्राकृतिक कुतर्क अंधविस्वास  को आधार दिया । शुद्धता श्रेष्ठता उच्चता का काल्पनिक खोल ओढ़ जनमानस को अपने से दूर रखा है । कन्याकुमारी से कंधार की सीमा अब कहाँ तक संकुचित होगी नहीं मालूम ।पर इतना मालूम है की विलुप्त प्रजाति में उसी का नाम आता है जो अप्राकृतिक व तथ्यात्मक नहीं होता ,समय के अनुकूल  नहीं होता, परिमार्जन का विकल्प खो देता है ।
    ईश्वर के बाद के ईश्वर का का कोई वजूद नहीं होता ,जब हम मानव  इश्वर बनने की अनुशंसा करते है ,प्रयास करते हैं, तो हम  ईश्वर से नहीं अपने आप से छल करते हैं । अपने विकास को स्थगित करते हैं ।
   जंतर मंतर की  तमाम घटनाओं /दुर्घटनाओं मे हरियाणा की हिन्दू जमात का धर्म परिवर्तन एक सामान्य घटना नहीं एक खुला  उदद्घोष  है । आक्रोश है इस धर्म के झंडावरदारों के प्रति । जिम्मेदार कौन ? अपने गिरेवान में झांकना होगा ।

उदय वीर सिंह
       
     


   
   

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

दिवास्वप्न का मानस

क्षीणता प्रवीणता को दागदार कहती है
अक्षमता प्रशंसा को बीमार कहती है -
टूटा आत्मबल, पसरा आँखों में सूनापन
कुदृष्टि मृगमरीचिका को जलधार कहती है -

विपन्नता, संपन्नता को अधिकारहर्ता
अनुशासनहीनता सुकर्म को कदाचार कहती है
स्वेक्षाचारिता आचार को हीन ,अशक्त
पतिता  वासना को अधिकार कहती है -

स्थूलता गतिमान को निराश्रय पथविहीन
हठवादिता परिमार्जन को धिक्कार कहती है
पराजय विजय को षडयंत्रकारी, निर्मम
विपथगा कृतघ्नता को संस्कार कहती है -

दिवास्वप्न का मानस गंतव्य को दीन
परजीविता प्रयत्न को अपमान कहती है
दासत्व के अनुबंध में पाई पद प्रतिष्ठा
पादुका की चोट को सम्मान कहती है -

- उदय वीर सिंह 




नापसंद हो गया हूँ .

गुमराह हो गया हूँ मैं 
गमपसन्द हो गया हूँ -
इल्जाम आया है कि मैं 
हकपसंद हो गया हूँ -
टूट गयी है खामोशी 
नापसंद हो गया हूँ -
उज्र है उनको कि मैं 
होशमंद हो गया हूँ -
बचाई आबरू हया की
खुद को बेच कर 
तंज़ करते हैं कि मैं 
दौलतमंद हो गया हूँ -


उदय वीर सिंह 

बुधवार, 5 अगस्त 2015

जानवर संतों के वेश निकले ....

जिंदगी के रंग कुछ ....


जिंदगी के रंग कुछ काले 
उदय कुछ सफ़ेद निकले -
रास्ते के मुसाफिर लुटेरे 
कुछ पाक दरवेस निकले -
मिली हमें फूलों की सौगात 
जब काँटों के देश निकले -
चला था नगर अपने गाँव 
मैं परदेशी वो परदेश निकले -
दिल में जगह थी थोड़ी दे दी 
सच के लिबास फरेब निकले -
डूबने लगा सफ़ीना गैरों की कौन 
अपने भी छोड़ निकले -
जानवर तो जानवर आखिर 
कुछ जानवर संतों के वेश निकले -


उदय वीर सिंह

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

कालजयी होने की अभिलाषा नहीं

परिचय मेरा कोई विशेष नहीं है 
भारत के सिवा मेरा देश नहीं है -
रहो अमन से ,मुझे  भी रहने दो 
तुमसे मेरा कोई विद्वेष नहीं है -
दे चुका हूँ संकल्प मे अपना शीश 
वलि निहितार्थ कुछ शेष नहीं है -
अक्षुण्ण रहेगी ,मेरी मातृ -भूमि 
जीवन का कोई और उद्देश्य नहीं है 
संस्कारों का दीप कभी बुझता नहीं 
माँ भारती का रूप स्मृति-शेष नहीं है -
कालजयी होने की अभिलाषा नहीं 
सेवादार हूँ इतर इसके संदेश नहीं है -

उदय वीर सिंह 

रविवार, 2 अगस्त 2015

जीवन प्रेम की छांव में माही....

सब्र से जीवन गुजर जाता है ,तंगहाली में
देख  कैसे माँ उतार लाती है,चाँद थाली में -

पनप जाता है जीवन प्रेम की छांव में माही
उजड़ जाता है नफ़रत से, खाम-खयाली में -

सींच लेता है मधुवन को, मधु-रस बोलों से
दिल में रहता है कहाँ कोई, तंजों गाली से -

है गुरबती भी मसर्रत सी, प्यार के आँगन
ढल जाती है रश्क में वो,गम की प्याली में -

उदय वीर सिंह