बुधवार, 29 जून 2016

कलम नहीं तलवार समझ .......

संकल्पित समवेत स्वरों 
को शोर नहीं हुंकार समझ 
सिर पर बांध कफन बोले 
लोर नहीं ललकार समझ 
छोड़ रुदन को साहस भर दे 
कलम नहीं तलवार समझ -
शर्तों समझौतों पर मिले हंसी 
वो प्रेम नहीं व्यापार समझ 
नम हों आँखें हों शब्द विहीन 
उस दर को संसार समझ -

उदय वीर सिंह

सोमवार, 27 जून 2016

महामना की श्रेणी

महामना की श्रेणी [ तथ्यांश ]
आजादी के बाद हम अधार्मिक हो गए थे ,अब धार्मिक हो रहे हैं हम अपनी परंपरा रीति रिवाज कर्मकांड संहिताए विधर्मियों के दबाव से भूल गए थे ,अब याद आ रहे हैं क्यों की उर्वरा मिट्टी व वातावरण अनुकूलन में है हमारा ज्ञान पुनः सुशु प्ता अवस्था को तज जाग्रत अवस्था में आ चुका है । अवसर मिल रहा है पुनर्निमान का,खोई हुई अस्मिता को स्थापित करने का संकल्प लें । संगोष्ठी में महामना जी उत्साहित हो बोल रहे थे ।
इतिहास अपने को दुहराता है यह दिखता प्रतीत होता है । स्मृतियों भाष्यों कथानकों में वर्णित मूल्यों का उन्नयन होना अपरिहार्य है ,उन आचार संहिताओं का ही समाज व हृदय में संग्यान लेना होगा । कितने पिछड़ गए थे उनसे बिछड़ कर ,कितनी धन जन व ज्ञान की हानि हुई ,अनुमान लगा नहीं सकते । आधुनिक नियम उपनियम संवेदनाए प्राचीन गौरव से विस्थापित हुई लगती हैं स्थापित करना होगा । सबका विकास होना है संवर्धन होना है उनके सद्द स्थापित प्रकोष्ठों में । उनमें बिचलन से ही हमारे समाज संस्कृति को अधोगति प्राप्त हुई है ।पिछली सताब्दियों में विधर्मियों के साथ ही कुछ हमारे तथाकथित ऋषि संत गुरु आस्था परोपकार की आड़ में समाज को दिग्गभ्रमित किया है नए पंथ संप्रदायों का निर्माण कर मनुष्य मात्र को मूल पथ से विमुख किया है , यह अच्छा नहीं है स्वीकार्य नहीं है । उनका परित्याग करना होगा ।
महामना आप का तात्पर्य हमें फिर से ब्राह्मण-ब्राह्मण ,क्षत्रिय -क्षत्रिय ,वैश्य -वैश्य ,शूद्र-शूद्र खेलना होगा । भीड़ से कालभद्र जी ने अपनी शंका निवारण हेतु खड़े हो पूछा ।
   आप समझदार हैं अनुकूलन में रहें बैठ जाएँ महामना ने बैठने का इशारा किया ।
महामना सारा विश्व एक दूसरे से विज्ञान की युक्तियों द्वारा एकीकृत हो गया है, संचार संस्कृति ज्ञान आचार आध्यात्मिक ,भौतिक विधाएँ साझा हो रही हैं । हम भी अपनी सहभागिता दर्ज कर रहे हैं । उच्चतम मूल्यों को स्वीकार करने की बहस छिडी हुई है । हम अपने को कहाँ पा रहे हैं । अन्वेषकदेव जी की  कुतूहल भरी जिज्ञाशा उद्वेलित हुई ।
   आप अभी शुषुप्तावस्था में है जाग्रत हों । बैठने का इशारा किया महामना जी ने ।
हमें अपनी ज्ञान, विज्ञान, प्रगति ,विचारधारा, बिसंगति,पारदर्शिता प्रेम, दर्शन से विश्व पटल पर किस श्रेणी में खेलना होगा ?समाज का वर्गिकरण होगा तो देश भी होंगे यही तो तर्क संगत है, उचित भी । शंकाधि जी ने प्रश्न किया ?
आप शंकाधि जी नहीं, व्याधि जी लगते हैं , बैठ जाईये आप के पास और कोई प्रश्न या शंका नहीं है क्या ? झल्लाते हुये महामना जी ने आँकें तरेरी ।
   प्रश्न वाजिब था गोष्ठी में चेहरे एक दूसरे को प्रश्नोचित दृष्टि से देख रहे थे ।
सर्व- धर्म सम-भाव की गोष्ठी में उथल पुथल थी। कुछ लोग ही रह गए थे।शनैः शनैः लोग चलते गए बिना यथेष्ट निर्णय के ।
महामना का नियोजित  प्रस्ताव निष्प्रभावी हो गया था । समाज के साथ देशों की भी श्रेणी विभक्ति सार्थक प्रश्न लगता है ..... । महामना ध्यान में अपने गालों पर उँगलियाँ लगाए डूब से गए थे । 

उदय वीर सिंह

शनिवार, 25 जून 2016

रखो तो दिल में प्यार रखो -

नेमतें यूं ही नहीं बरसती दामन मे,
साफ रखो संवार रखो -
नफरत तुम्हें हंसने नहीं देगी वीर
रखो तो दिल में प्यार रखो -
तेरे अपने ही नहीं गैर भी सराहेंगे 
दिलों के बीच न कोई दीवार रखो -
उदय वीर सिंह

गुरुवार, 23 जून 2016

मनुष्यता की कोख से

मनुष्यता की कोख से 
संवेदना संज्ञान ले -
नीर्जला की भूमि से 
नद- सरित प्रयाण ले -
तृण मूल भी हुंकार भर
लौह का स्वरुप ले 
विपन्नता दैन्यता 
मष्तिष्क से निर्वाण ले -
कहीं दबी गहराईयों में 
सृजन की सद्द चेतना 
भेद कर प्रस्तर अटल 
नव वल्लरी आकार ले -

- उदय वीर सिंह

सोमवार, 20 जून 2016

यादों के दीये कहाँ रख दिये तुम -

यादों के दीये कहाँ रख दिये तुम 
देखो अंधेरा- अंधेरा  हुआ है -
स्वप्नों की झांझर न बजती है आँगन 
आँखें खुली तम पसरा हुआ है -
आवाक हूँ चल तिमिर गह्वरों में
कोई कह रहा है सवेरा हुआ है -
लिखता रहा हूँ जलता रहा मन 
वरक उड़ रहे नीर बिखरा हुआ है -

उदय वीर सिंह 



त्यागो नशा. मद को पीना न सीखो -

कभी गम के हाथों बिकना सीखो
किसी की बुलंदी से जलना सीखो -
दिन गर्दिशी के मोहब्बत के दिन हों
कभी गुरबती से डरना सीखो -
जियो सिर उठाकर ले रब का भरोषा
कभी कायरों सा ,मरना सीखो -
कदम लड़खड़ाने से पहले संभलना
कभी दाग बनकर जीना सीखो -
सच्चे पातशाहों ने बख्सा है अमृत
त्यागो नशा मद को पीना सीखो -

उदय वीर सिंह 


रविवार, 19 जून 2016

वो पिता होते -

सहते सारे आघात - वो पिता होते -
न शिकायत ना कोई घात ,सुन लेते दिल की बात ,
देते खुशियों की दात ,वो पिता होते -
बन कर फौलादी दीवार, सह लेते सारे संकट वार 
चाहे नभ बरसे अंगार ,वो पिता होते -
आशाओं के उद्द्गम स्थल शांत सलिल व निर्मल निश्चल
करते अमृत की बरसात,वो पिता होते -
शैल शिखर की भीतर सरिता,गुल -गुलशन के माली
बिन प्रत्याशा जीवन देते वार, वो पिता होते -
कर्कस स्वर संकल्प नियोजन ,अनुशासन के स्वामी
शूर विजेता का ही भरते सार ,वो पिता होते -
उदय वीर सिंह

गुरुवार, 16 जून 2016

बिन तनख़हिया जांबाज बता दो -

किसकी रोटी पर दूध मलाई
किसकी रोटी पर दाग दिखा दो -
आसान उठाना उंगली हम पर
बिन तनख़हिया जांबाज बता दो -
छल का सेवक बाना तन पर 
शहँशाह का इतिहास बता दो -
तुम दाग ढूंढते रह जाओगे वीर
अपराधी का अपराध छुपा दो -
शुचिता कितनी है पय गागर
सकल दूध मथ झाग हटा दो -
उदय वीर सिंह

मंगलवार, 14 जून 2016

सवालियों का क्यों लगता है

जाने क्यों ये देश सवालियों का
क्यों लगता है -
सुनाई देती है चीख चिंघाड़ सब ओर
जाने ये दयार अब मवालियों का
क्यों लगता है-
हर हाथ छुरे खंजर शमशीरे खूनी दाग हैं
जाने ये आलमे जम्हूरियत बवालियों का 
क्यों लगता है -
शुमार था बुलंदी और तरक्की के पायदानों पर
ये हमारा देश अब दिवालियों का
क्यों लगता है -

उदय वीर सिंह

रविवार, 12 जून 2016

नशेड़ी नशेड़ी को नशेड़ी कह रहा है -

विडम्बना है नशेड़ी नशे पर प्रतिवन्ध नहीं, नशेड़ी का उपहास कर रहा है ]
पंजाब की हालत बताने में लगे असरदार बहुत हैं
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में लगे ईमानदार बहुत हैं
मधुशाला की रोटी खाने वाले महिमा मंडित हुए देखा
आकंठ डूबा है देश नशे में पर कहते हैं सरदार बहुत हैं -
फिक्र बहुत है पंजाब की कि मद पीकर ही लिखते है
शेर के खाल में लिपटे हुये पाये गए सियार बहुत हैं
भरता है गिलास कारोबारी देता है पीने का इश्तिहार
बहुरूपियों का ये चरित्र विरोधी कम पैरोकार बहुत हैं -
आप ज्ञानी उजड़ते पंजाब से रूबरू हुये अच्छा लगा
गाली को अभिव्यक्तियों का जामा मिला अच्छा लगा
नंगा कर चौराहों पर विश्लेषण करना भी अच्छा लगा
आपका नशाबंदी से मुकर जाना कितना अच्छा लगा -
उदय वीर सिंह

शनिवार, 11 जून 2016

बँटवारे मे पेन्सन --[ लघु कथा ]

बालमुकुंद पाठक एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापक थे , स्कूल कुछ मील की दूरी पर था प्रतिदिन का आना जाना था , रास्ते में ही एक सरकारी बैंक भी था जहां भाऊ मजरे के लोग अपना खाता खोले हुये थे, जहा से उनको सरकारी पेन्सन व अन्य फसलों का नकद भुगतान खातों के माध्यम से प्राप्त होता था।आस पास के मजरे के लोग भी छोटी बड़ी वचत,व विकास कार्य हेतु आर्थिक मदद [ऋण ] प्राप्त करते । 
    पड़ोसन बेवा बैजन्ती देवी को उसी बैंक शाखा से वृद्धा- पेन्सन तीन सौ रुपया प्रति माह प्राप्त होती थी ।जो छह माह में एक बार बैंक खाते में आती थी । आज सुबह बैजन्ती देवी ने बालमुकुंद जी को अपनी साइकिल से बैंक तक छोड़ देने का निवेदन किया था , कारण बुढ़ापा था ,चल फिर पाने में तकलीफ थी, और कोई मददगार नहीं दिखा ।
   चाची ! हम छोड़ तो देंगे पर बैंक से वापस कैसे आएंगी ! जेठ का दोपहर भयंकर गर्मी है । शरीर भी कमजोर है । तबीयत भी ठीक नहीं है ।बाल मुकुन्द जी ने पूछा -
बाबू का करें , बड़का बेटवा रामप्रकाश की बेटी बीमार है, दुआ- दवाई का कोनो इंतजाम नाहीं है , रामदयाल प्रधान बता रहे थे की बुढ़ापा पेन्सन आया है । वो मंगाने का मांग रहे थे दो सौ रुपैया, पास में नाहीं था सौ दिये और देना है ।
ई महिना में छोटे बेटे सतप्रकाश के साथ रहना है । दोनों में झगड़ा तकरार अनबन चल रही है हमारी बात का कौनों असर नाहीं है , मालिक के चले जाने के बाद हम केतना दुख उठा दोनहुन के पढ़ाये, बड़ा किए, अब ई समय में ठोकर लिखा है का करें किसको दोस दें ,केवन जतन करे ...। बैजंती देवी झरते हुए आंसुओं को आँचल से पोंछ रहीं थी ।
चाची न रोईं हम ले चलेंगे और घर वापस भी छोड़ के स्कूल जाएंगे दिल मत दुखी करिए । बालमुकुंद जी खड़े होकर बोले ।
बाबू हम हम धीरे धीरे उठत बैठत कइसो आ जाएंगे । आप के काम के हरजा होई ।
चाची हम संभाल लेगे आप न चिंता करी ।
बाल मुकुन्द जी बैजंती जी को बैंक ले जाकर अठारह सौ रुपये की निकासी करा कर घर वापस छोड़ स्कूल चले गए ।
दोपहर ढले बाद जब घर लौटे । तो पड़ोस में कोहराम मचा था । सूना सूना व अजीब विषाद भरा वातावरण था ।एकके दुक्के लोग त्धर उधर आ जा रहे थे ।
घर में पुछने पर पत्नी राधा देवी ने बताया -
बैजंती देवी के दोनों बेटों रामप्रकाश और सत्यप्रकाश में पेन्सन के पैसे को लेकर विवाद ,फिर हाथापाई और मारपीट हो गई । दोनों को पुलिस पकड़ कर थाने ले गई है । दोनों की पत्नियाँ पास के प्राथमिक अस्पताल में हैं भर्ती हैं । बच्चे घर अकेले हैं रो रहें है ।
आखिर हुआ क्या था ? बाल मुकुन्द जानना चाह रहे थे ,
आपस में बँटवारे के हिसाब से इस महीने में चाची जी को सत्यप्रकाश के पास रहना था सो पेन्सन सत्यप्रकाश मांग रहा था । चाची जी ने रामप्रकाश को दे दिया क्यों की रामप्रकाश की बेटी को मियादी बुखार हो गया है शख्त जरूरत थी । और इस बात पर झगड़ा शुरू हो गया । चाची बीच बचाव करने लगीं ,दोनों ने धक्का दे दिया गिर पड़ीं । फिर वापस आ बैठ रोती रहीं , गहरा सदमा लगा उनको फिर किसी से कोई बात नहीं किया सिर्फ रोती रहीं । बहुए भी कम नहीं, उनहों ने भी वाकयुद्ध छेड़ दिया फिर लड़ पड़ीं । चाची को कोई पुछने वाला नहीं था ।
बाल मुकुन्द जी एक गिलास ठंढा पानी पी आनन फानन में पड़ोस में पहुंचे ।
मंजर देख दंग रह गए । दोनों के पाँच बच्चे लेटी हुई दादी बैजंती देवी को घेर कर उदास बैठे हुये थे । बाल मुकुन्द के पुछने पर बोले-
देर से दादी जी सो रही है कुछ बोल नहीं रही ।
हमारे मामा जी आए हैं वो अम्मा को लाने गए हैं । विकास के मामा जी नहीं आए हैं । रामप्रकाश की बीमार बेटी ने बताया ।
रोते हुये अबोध बच्चों के स्याह चेहरों पर आँसू सुख गए थे । निराश थे अपनों के आने की प्रतीक्षा में थे ।
बाल मुकुन्द ने चाची ! चाची ! कह बैजंती देवी को झँझोड़ा फिर ऊंची आवाज दी पर कोई प्रतिक्रिया न हुई । चाची बैजंती देवी बच्चों के घेरे के बावजूद वो घेरा तोड़ जा चुकी थी । पेन्सन व परिवार के विवाद से बहुत दूर ।
उदय वीर सिंह




कहते हैं चिट्टी चादर विच दाग लग गया

आज रोटी मेँ मेरे कबाब लग गया
कहते हैं चिट्टी मेँ चादर दाग लग गया -

सौदा ही तो किया था भूखे बच्चों के जानिब
लंबरदारों को कितना ख़राब लग गया -

कहाँ थी जमाने को जश्नों से फुर्सत
बेचा किडनी तो पतझर मेँ फाग लग गया -

हमदर्द भी बहुत थे खामोशियों मेँ मेरी
मांगी मदद तो रुख हिजाब लग गया -

उदय वीर सिंह


गुरुवार, 9 जून 2016

सबके घर किताब है

सबके घर में आग है सबके घर में पानी  भी
सबके घर बुढ़ापा है सबके घर जवानी भी -
आँखों में सबके ख्वाब है आँखों में पानी भी 
सबके घर किताब है सबके घर कहानी भी  -
चंगे चंगेरे दोनों हाथ हैं , लकीरें वीर 
सबके नसीब अपने अपनी ज़िंदगानी  भी -
सबको बख्सी दात रब ने अपनी मेहरबानी भी 
सबके दिल में प्यार और प्यार की निशानी भी -

उदय वीर सिंह 

बुधवार, 8 जून 2016

गुरु अर्जन देव जी

धर्म- रक्षार्थ अंतहीन यातनाओं को सहते हुए पंचम पातशाह गुरु अर्जन देव जी महाराज ,आतताईयों द्वारा शहीद किए गए । उनकी शहादत दिवस की पूर्व संध्या पर अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजली... बोले सो निहाल ! सतश्री अकाल !
****
बंजर हो गईं दरो दीवार सितमगरों की
वहाँ चिराग भी न रौशन हुए -
हकपसंदों के कदम जहां पड़े, नूर बने 
गुरुद्वारे बने शाने -रहम हुये -
इंसानियत के गुश्ताखों का कोई नामलेवा नहीं
गुरुओं की शहादत के सोणे करम हुये -
जगमगा रहा है रोशन जहां खुल्द मे भी
कटे शीश जहां वो दीनों हरम हुये -
उदय वीर सिंह

रविवार, 5 जून 2016

रस्म तो रस्म ही है

गुमनाम सिंह ! गुमनाम सिंह !  हरी सिंह आवाज दे रहे थे । 
   जाने किधर रहता है पता नहीं कहाँ है ,गूंगा बहरा हो जाता है ,जब बुलाओ तो न सुनता है न आवाज ही देता है । ठीक ही इसका नाम गुमनाम रख दिया । खाँसते हुये हरी सिंह ने कुछ ऊंची आवाज मेँ कहा । अच्छा ही हुआ जो सब के सब छोड़ कर चले गए । बेटे -बेटियाँ, कहने को सगे संबंधी मित्र सब .... । कौन किसके लिए रुका है , एक कहने को अर्धांगिनी वह भी हम से पहले ही हाथ छुड़ा चली अपनी राह ,तू भी चला जा । मैं तुम्हें भी नहीं रोकूँगा , ... आखिर तू भी मेरा कौन है तुम पर भी कौन मेरा सा अधिकार है । जब अपने ही नहीं हैं मेरे कठिन समय मेँ, तो तुम तो ठहरे एक पराए नौकर जब तक पगार पाओगे रहोगे ,नहीं अपनी राह देख लोगे । हरी सिंह कुंठित हो अकेले बोले जा रहे थे । बृद्धा अवस्था वह भी बीमार कृशकाय शरीर , आदमी असहज व भावुक हो ही जाता है । 
जी ताऊ जी ! आ गया , गुमनाम सिंह  पास आकर बोला। 
कहा चला गया था मैं यहा परेशान हूँ और तू घूम रहा है इधर उधर । 
जी ताऊ जी ! मैं चला गया था पाव रोटी लेने , हाथों मेँ जख्म हो गया है , रोटी नहीं बना पाया था । आपको दवा खानी है न इस लिए । पाव रोटी के लिए .... गुमनाम सिंह अभी अपनी बात पूरी करता की 
चुप बदमाश ! केवल बहाने बनाता है । हरि सिंह डांटते हुये बोले मैं तेरी शिकायत बेटों से  से करुगा । तु बहुत सिर चढ़ गया है । मेरी ही औलाद समझने लगा है अपने आपको ,नौकर !मेरी कोई फिक्र नहीं है इसे भी । 
माफ करो ताऊ ! ऐसा नहीं है ।गुमनाम विनम्रता से कहा । 
अब जा भी यहा से ..... हाथ उठा ,हरी सिंह बोले  
  जी ताऊ ! अभी चाय और पाव रोटी लाया । सिर नीचा किए गुमनाम चला गया । बिना कोई प्रतिवाद किए । 
   हरी सिंह की पत्नी का दो माह पूर्व स्वर्गवास हो गया विदेशों मेँ बसे बच्चे अर्थी को कंधा तो नहीं दे सके पर श्राद्ध पर इकट्ठे हुये । पिता हरी सिंह को तीनों बच्चे एक बेटी गाँव से शहर के मकान मेँ ले आए । साथ आया गुमनाम सिंह सेवा व देखभाल के लिए । गुमनाम का वास्तविक नाम, ग्राम क्या है किसी को नहीं पता वह हरी सिंह को एक सफर मेँ मिला साथ लाये उसकी न किसी ने खो खबर ली न किसी ने शिकायत । वह हरी सिंह के पास रह गया नाम गुमनाम पड़ गया । हरी सिंह ने उसे एक बीघा जमीन अलिखित रूप से अपने परिवार के समक्ष देने की घोषणा की थी , गुमान घर का सदस्य स्वरूप हो गया । 
      हरी सिंह प्रतापपुर शुगर मिल मेँ मुलाजिम  थे पास ही गाँव मेँ अच्छी खेती बाडी शहर मेँ लंबा चौड़ा मकान ,समृद्ध परिवार था  कालांतर मेँ बच्चे बाहर विदेश स्थापित हो गए । पर स्टेटस का गुरूर सगे संबंधियों से व समाज से दूरी भी बढ़ती गई । संबंध नाममात्र के वो भी व्यवसायिक से रह गए ।कोई अतिआवश्यक कार्य न हो तो इस परिवार से कोई सरोकार न रखता । नौकर कम परिवार का सदस्य गुमनाम ही था जो पास था । सेवादार परिचारक, रखवाला, रसोइया सब कुछ ।
  गुमनाम सदेव खुश था प्रौढ़ होने पर एक नेपाली मूल की लड़की से शादी भी इस परिवार ने करा दी, पर कुछ समय बाद दुल्हन ने इस परिवार से नाता तोड़ कहीं और चल अपना घर बसाने को कहा ,क्यों की वह गुमनाम की बंधक सी जिंदगी व सेवादारी से वह सहमत नहीं थी । वह मुक्त जीवन चाहती थी । 
   नहीं मैं इस परिवार को छोड़ कर नहीं जा सकता । यह मेरा घर है ये मेरे अपने परिजन हैं । गुमनाम ने स्पष्ट कहा था । और दुल्हन गुमनाम को छोड़ चली गई ,फिर कभी नहीं आई । 
    हरी सिंह की पत्नी के इंतकाल के बाद हरी सिंह के बच्चे हरी सिंह को शहर वाले मकान पर  लाकर गुमनाम की रखवाली मेँ छोड़ दिया । गुमनाम  को अब तीन हजार की पगार भी देने की घोषणा हुई थी ,जिससे गुमनाम की वफादारी या लालच से सेवा बनी रहे । यह अलग है कि तंख्वाह के नाम पर अभी एक पैसे किसी ने नहीं दिये । वह कभी अपनी हसरतों को कहा भी नहीं ,जो मिला मुकद्दर माना । उसे हरी सिंह व उनकी पत्नी का पूर्व वात्सल्य स्नेह व दिया आधार अब याद आता ,बेरुखी खलती थी ,कभी सोचता..... वह तो नौकर का नौकर ही रहा .... फिर भी क्या हुआ । 
    सितंबर का महिना उमस व मौसम परिवर्तन की पीड़ा ,खांसी बुखार का आना  सामान्य सा था ,इधर कई माह से हरी सिंह कि तबीयत काफी खराब रहने लगी थी ,कुछ न कुछ लगा ही रहता  वह चिड़चिड़े से हो गए थे ,अक्सर गुमनाम को भला बुरा कह देते ,बच्चों को कोसते। 
      गुमनाम फिर भी सेवा मेँ अनवरत था कोई शिकायत नहीं करता कभी नाराज नहीं होता वह हरी सिंह की मनोस्थिति को समझता था । किसी एक रिश्तेदार ने गाँव से एक काम वाली को यहाँ लाकर रख दिया जो गुमनाम को  घरेलू कार्य मे मदद करती थी  । वह भी एक दिन कम छोड़ कर चली गई । अकेला गुमनाम रात दिन अनवरत सेवा मेँ झिड़कियों दांट-फटकार के बाद भी बिना शिकायत लगा रहता । 
    पिछले हफ्ते हरी सिंह भी स्वर्गलोक सिधार गए।  गुमनाम  की अथक सेवा भी काम नहीं आई । पुत्र पुत्रियाँ  रिश्तेदार सब तेरहवीं मेँ  इकट्ठे हुये ।  रश्म पगड़ी के बाद ही दूसरे दिन संपत्ति के बटवारे नामांतरण, वसीयत, वरासत की चर्चा  ही नहीं कार्यवाही  भी आरंभ हो गई । किसी के पास समय न था । बाँट बटवारा जितना शीघ्र हो जाए अच्छा था । सबको अपनी दुनियाँ की पड़ी थी । आज भी गुमनाम सेवा मेँ रत था ।  रश्म तो रश्म ही है पूरी होनी ही थी ,यहाँ किसी को उसकी चिंता न थी ,कोई उसका फिक्रमंद न था ।हरी सिंह की एक बीघे की रस्मी घोषणा जो करीब बीस पूर्व की गई अब बिसरी जा चुकी थी । 
      खाली हाथ अब वह अपने अनजान अंतहीन पथ पर था,  उसकी अब किसी के प्रति कोई  प्रतिवद्धता नहीं थी ,मुड़कर भी वह कैसे देखता ,पीछे से कोई आवाज भी देने वाला न था । 

उदय वीर सिंह 
    




ध्वंस ... गहन अंधकार

पर्यावरण के
पीछे का सच 
उन्माद उपेक्षा विध्वंस 
धृष्टता तथाकथित श्रेष्ठता 
लोभ अहंकार अमानवीयता 
वरीयता कृत्रिम सृजन की 
नैशर्गिकता से निर्मोह 
विमुखता 
प्रवंचना प्रमाद की स्वीकारोक्ति 
संस्कार विहीनता 
रग रग में समाई है ,
प्रकृति को बौना बना देने की  
व्यक्ति, समाज ही नहीं वरन 
देशों ने मानो कसम 
खाई है ...
प्रकृति भी खड़ी है 
समक्ष
सृजन प्रबोध की जगह
लेकर प्रलय अकाल बाढ़  सूखा  
मृत्यु विनाश धुन्ध
 गहन अंधकार ..... 

उदय वीर सिंह 


शनिवार, 4 जून 2016

पीर पराई लिखो तो

लिखा अपनी खुशियाँ सारी
पीर पराई लिखो तो -
मांगी अपनी खैर खुदा से
खैर पराई लिखो तो -
हार हमारी प्रेम हमारा 
जीत पराई लिखो तो -
नेह अनुवंध की पावन कविता
प्रीत पराई लिखो तो -
उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 3 जून 2016

मन भाग नहीं बादल के पीछे

Udaya Veer Singh's photo.मन भाग नहीं बादल के पीछे
घन आवारा हरजाई है -
कुछ छांव मिली तो समझ न अपना
नीचे उसकी परछाईं है -
यादों का बंधन मोह न बरसे 
विच सावन आँख भर आई है -
भूला आँगन प्रीत का उपवन
मधुवन में ज्वाला पाई है -
न आओ संग विस्मृत हो जा
स्मृतियों ने वेदन जाई है
ज्योति गई नैनन से भागो
क्यों हृदय में अलख जगाई है -
उदय वीर सिंह